Book Title: Budhjan Satsai
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

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Page 56
________________ ४२ बुधजन-सतसईकंटकका अर दुष्टका, ओर न बनै उपाय | पग पेनहीं तर दात्रिये, ना तर खटकत आय ||८५| मन तुरंग चंचल मिल्या, वाग हाथमै राखि । जा छिन ही गाफिल रहो, ताछिन डारै नाखि॥८६॥ मन विकलप ऐते कर, पलके गिने न कोय । याके कियें न कीजिये कीजै हित है जोय ॥८॥ पौनथकी देवनथकी, मनकी दार अपार । बूड़े जीव अनंत हैं, याकी लागे लार ॥८८|| मन लागें अवकास दे, तब करतत्र बन जाय । मन विन जाप जपै वृथा, काज सिद्ध नहिं थाय ॥८९॥ जैसे तैसैं जतन करि, जो मन लेत लगाय । फुनि जो जो कारज चतुर, करै सु ही बन जाय ॥१०॥ जिनका मन वसिमैं नहीं, चाल न्याय अन्याय । ते नर व्याकुल विकल हे, जगत निंदता पाय ॥९१॥ बड़े भागते मन रतन, मिल्यौ राखिये पास । जहांके तहांके खोलते, तन धन होत विनास ॥१२॥ तनतें मन दीरघ धनौ, लांबौ अर गंभीर । तन नासै नास न मन, लरती बिरियां वीर ॥१३॥ मन माफिक चालै न जब, तब सुतौं तज देत । मन.साधन करता निखि, करत आनतें हेत ॥९॥ १ जूता । २ पलभरके विकल्पोंको कोई गिन नहीं सकता। ३ हवासे ।

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