Book Title: Bharatiya Sanskrutima Guru Mahima
Author(s): Gunvant Barvalia
Publisher: Arham Spiritual Centre

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Page 95
________________ wwwwwwwwwमारतीय संस्कृतिमा गुरुमहिमाwwwwwwwww "विषयों की आशा नहीं जिनमें साम्य भाव धन रखते है, निज पर के हित में जो निश-दिन तत्पर रहते है।" वे जिनमत निपुण एवं अभिगम कुशल है तथा सांसारिक वैभव को छोडकर मोक्षसुख पाने के लिए सतत प्रयत्नशील है। (३) तृतीय पद - २८ मुलगुणों की मणियों से शोभित सद्गुरु प्रमादरहित, सदाचारी एवं सम्यकदृष्टा है। पाँच महाव्रत (सत्य, अहिंसा, अचौर्य, ब्रह्मचर्य एवं अपरिग्रह) में रत, इन्द्रिय-विजेता (स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु एवं कर्ण), ईर्ष्या, भाषा, एषणा, आदान-निक्षेपण एवं प्रतिष्ठापन समितियों से युक्त, समता, वन्दना, स्तुति, प्रतिक्रमण, प्रव्याख्यान, कायोत्सर्ग आदि में लीन तथा अचेल कत्व, अस्नान, अर्दत-द्यावन, केश लोंच, भूमि-शयन एवं एक भुक्ति-भोजन करने वाले है। षड्द्रव्य (धर्म, अधर्म, जीवस जीव, आकाश एवं काल) में दृढ विश्वास रखते है। जरा भी संदेह करते है। समयोचित करने वाले सदैव प्रमाद से दूर रहते है। सम्यग् दृष्टि से सम्पन्न धर्म में स्थित शुद्ध-आत्मा वाले गुरु हमेशा अपने गुणों के पोषण में लगे रहते है। (४) चतुर्थ पद - इस पद में गुरु के करुणामय, दयामय एवं समतामय स्वभाव एवं भावनाओं का सुन्दर वर्णन हैं। पद की पंक्तियाँ है - "पर दुख कातर सदय हृदय जो मोह-विनाशक तप धारे पंच पाप से पूर्ण परे है, पले पुण्य में जग प्यारे । जीव जन्तु से रहित थान में वास करे निज कथा करें जिनके मन में आशा ना है दूर कुपथ से तथा परे ॥" गुरु दूसरों के दुख से दुखी हो जाते हैं। उनका हृदय प्रेम और करुणा से ओत-प्रोत है। मोहादि कषायों को शांत करने के लिए तप करते हैं। हिंसा, असत्य, चोरी, बह्मचर्य, परिग्रह जैसे पांच पापों से पूर्ण रुप से विरत रहते हैं। सदा पुण्य में रमण करने वाले वे गुरु जग में सबके प्यारे हैं। अहिंसा दृष्टि से भावित होने के कारण वे जीव-जन्तु रहित स्थान में निवास करते हैं ताकि किसी भी प्रकार की कोई विराधना न हो। उनके मन में किसी भी प्रकार की कोई आशा, इच्छा, लोभ, मोह नहीं है। वे सन्मार्ग पर चलते हैं तथा कुपथ से दूर रहते हैं। (५) पंचम पद- वे हर कार्य को अत्यन्त ही सजगता एवं जाग-रुकता से करते हैं। कभी भी कोई भी ऐसा कार्य नहीं करते है जिसके कारण उनको उपवास -१८७ wwwwwwwwwमारतीय संस्कृतिमा गुरुमहिमाwwwwww आदि दण्डों से दण्डित होना पडे। उनका तन और मन सुन्दर है। अर्थात् शरीर से सुडोल एवं मन से अच्छे विचारों व भावनाओं से भावित है। सदैव साधु-जनित क्रियाएँ करते है तथा क्षुधा, पिापासा, शीत, उष्ण, दंश, मसक, नग्न, अरीत, स्वी, चर्या, निषधा, शय्या, आक्रोश, वध, याचना, अलाभ, रोग, तण, मल, सत्कार-पुरस्कार, अज्ञान, अदर्शन, अचेलता आदि बाईस परषिहों को सहन करते हैं। प्रत्येक कार्य तथा संधान (अपने में जो गुण, पूजा आदि छूट गये हो उनका पुनः आरोपण करना), अन्वेषण, ध्यान आदि को अत्यन्त सावधानी एवं एकाग्रचित्त होकर करते है। किसी भी प्रकार का प्रमाद आदि नहीं करते हैं। (६) षष्ठम पद - इस पद में बताया गया है कि हमारे आचार्य गुरु यम, नियम आदि के पालन में कठोर एवं अटल है। किसी भी प्रकार की शिथिलता का कोई अवकाश नहीं होता है। ये गुफाओं और कन्दराओं में अकेले रहते हैं। इन्द्रियों, लोभ, मान, माया, मोह, मद आदि कषायमुक्त परिणामों तथा दुर्गति में डालने वाली लेश्याओं से अति दूर रहते है। यथाजात (अचेलक, नग्न) अवस्था में रहते है। पसीना, मैल आदि की परवाह नहीं करते है। इस दोहे में यही बताया गया है - "नियमों में है अचल, मेरुगिर कन्दर में असहाय रहे विजित मना है जित-इन्द्रिय है जितनिद्रक जितकाय रहे। दुस्सह, दुखदा दुर्गति-कारक लेश्याओं से दूर रहे यथाजात है जिनके तन है जल्ल-मल्ल से पूर रहे ॥" (७) सप्तम पद - गुरु उच्च भावों से भावित होकर दिन-रात आत्मा में रमण करते है। पूजा, ज्ञान, जाति, कुल आदि आठ मदों का गर्व नहीं करते हुए राग-द्वेष, ईर्ष्या, मत्सर, दुष्टता, आदि पापकारी प्रवृत्तियों से दूर रहकर पाप रुपी अंधकार को मिटाते है तथा सिद्ध-भक्ति में तन्मय रहते है। निरन्तर आगमों के स्वाध्याय, मंथन एवं मनन-चिन्तन में लीन रहते है। ऐसे सद्गुरु आचार्य का जीवन अतुलनीय है। (८) अष्टम पद - ध्यान चार प्रकार के होते है - आर्तध्यान, रौद्रध्यान, शुक्लध्यान एवं धर्मध्यान। आर्तध्यान एवं रौद्रध्यान हमारे शरीर एवं आत्मा के लिए कष्टदायक व दुर्गतिकारक होते है। अत: सद्गुरु सदैव इन से दूर रहने का प्रयास करते है। शुक्लध्यान एवं धर्मध्यान तरण-तारण हाने के कारण उनमें ही अपने ૧૮૮

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