________________
भारतीय संवतों का इतिहास प्राथमिक और सारभूत बातों में ये पद्धतियां एक ही मूल से
उत्पन्न हुयी है। (४) "प्राचीन लोगों को जो पांच ग्रह ज्ञात थे उनके नाम, और उन पर
सप्ताह के दिनों का नाम एक होना"' । चन्द्रमा की गति के लिए रवि मार्ग का २७ या २८ भागों में विभाजन हिन्दुओं में प्राचीन समय से प्रचलित था और पूर्ण विकसित अवस्था में था । सूर्य की गति के लिए रवि मार्ग का १२ भागों में विभाजन (राशी क्रम) भारत में उस समय से प्रचलित था जबकि दूसरे देशों में उसका लेशमात्र भी नहीं पाया जाता था। मंद परिधियों का सिद्धान्त हिन्दुओं में प्रचलित था, अनेक कारण इस धारणा के अनुकूल है । इन तथ्यों के सम्बन्ध में बायो तथा अनेक विद्वानों के मत इसके विरुद्ध होते हुए भी बरजेस ने इनकी मूल उत्पत्ति भारत में ही मानी
गोरख प्रसाद ने कोलबुक के इस कथन से कि भारतीय दर्शन के क्षेत्र में शिक्षक थे न कि शिष्य, अपनी सहमति प्रकट की है और भारतीय ज्योतिष को पाश्चात्य से उन्नत माना है ।
इस प्रकार भारतीय ज्योतिष पर विदेशी प्रभाव के सम्बन्ध में विद्वानों के विचारों के आधार पर उन्हें तीन श्रेणी में बांटा जा सकता है। प्रथम वे विचारक हैं जो यह मानते हैं कि भारतीय ज्योतिष पूर्णतया विदेशों से उधार ली गई है । ज्योतिष जैसे शास्त्र को जन्म देने की क्षमता भारतीयों में थी ही नहीं, न ही वे इसके लिए वेध कर सकते थे और न ही इसके जटिल नियमों का बनाना, परखना अथवा प्रयोग में लाने की योग्यता उनमें थी। अतः यह शास्त्र पूर्ण रूप से विदेशों में जन्मा व विकसित हुआ है तथा भारतीयों ने इसे दूसरे लोगों से ही सीखा है । इस वर्ग में हिटने के विचारों को रखा जा सकता है। दूसरे दे विचारक हैं जो भारत में ही ज्योतिष की उत्पत्ति मानते हैं तथा उनका विश्वास है कि शास्त्र के मूल तत्वों की उत्पत्ति न कि पश्चिम में बल्कि पूर्व में हुई । पूर्व में उत्पन्न होकर ये सिद्धान्त पश्चिम में गये । इस वर्ग में बरजेस का नाम लिया जा सकता है। तीसरा वर्ग उन विद्वानों का है जो इन दोनों के बीच का मार्ग अपनाते हैं । इन विचारकों के मत में ज्योतिष के कुछ तत्वों का विकास भारत में ही हुआ और कुछ को विदेशी ज्ञान के आधार पर पुनः शोधित किया
१. बरजेस, गोरख प्रसाद द्वारा उद्धत, 'भारतीय ज्योतिष का इतिहास',
लखनऊ, १९५६, पृ० १६६ ।