Book Title: Bharatiya Sampadan Shastra
Author(s): Mulraj Jain
Publisher: Jain Vidya Bhavan

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Page 26
________________ ( १३ ) ast लिपिकार आदर्श है जो अपनी आदर्श प्रति पर अंध विश्वास रखता है, उसका यथासंभव ठीक ठीक अनुसरण करता है, मक्खी पर मक्खी मारता है । परंतु ऐसे लिपिकार प्रायः कम मिलते हैं । वह शब्द लिखते हैं, अक्षर नहीं, अर्थात् वह अपनी आदर्श प्रति से थोड़ा सा पाठ पढ़ लेते हैं और उसे अपनी प्रति में लिख लेते हैं, फिर थोड़ा सा पढ़ लेते हैं और लिख लेते हैं, और इसी तरह लिखते जाते हैं । इस से कहीं न कहीं प्रस्तुत पाठ में अंतर आ जाता है । मूढ़ पुरुष अच्छी प्रतिलिपि उतार सकता है क्योंकि लिपि करते समय वह अपनी बुद्धि को पीछे हटाए रखता है और केवल अपनी आदर्श प्रति से ही काम लेता है । जो लिपिकार अपने आदर्श के छूटे हुए अथवा त्रुटित पाठों को ज्यों का त्यों छोड़ देता है, उनको पूरा करने का प्रयत्न नहीं करता, जो अपनी प्रति में आदर्श की मामूली से मामूली अशुद्धि को भी रख देता है, वह प्राय: विश्वसनीय होता है । लिपि करने का काम इतना सहज नहीं जितना प्रतीत होता है । लिखते लिखते लिपिकारों की कमर, पीठ और प्रीवा दुखने लगते हैं । इस कठिनाई का उल्लेख वह स्वयं अपनी प्रशस्तियों में करते हैं, जैसे मत्स्य पुराण अध्याय १८६ में लेखक (लिपिकार) का लक्षण इस प्रकार बतलाया है ------ सर्वदेशाक्षराभिज्ञः सर्वशास्त्रविशारदः । लेखकः कथितो राज्ञः सर्वाधिकरणेषु वै ॥ शीर्षोपेतान सुसंपूर्णान समश्रेणिगतान समान् | अक्षरान् वै लिखेद्यस्तु लेखकः स वरः स्मृतः ॥ उपायवाक्यकुशलः सर्वशास्त्रविशारदः । बह्वर्थवक्ता चाल्पेन लेखकः स्याद् भृगूत्तम ॥ वाक्याभिप्रायतत्त्वज्ञो देशकालविभागवित् । नाहाय्य नृपे भक्तो लेखकः स्याद् भृगूत्तम ॥ चाणक्यनीति में इस का लक्षण ऐसे किया है सकृदुक्त गृहीतार्थो लघुहस्तो जिताक्षरः । सर्वशास्त्रसमालोकी प्रकृष्टो नाम लेखकः ॥ ( शब्द - कल्प- द्रुम के 'लेखक' के विवरण से उधृत ) काव्य मीमांसा पृष्ठ ५० सदःसंस्कारविशुद्धयर्थं सर्वभाषाकुशलः शीघ्रवाकू चार्वक्षर इङ्गिताकारवेदी नानालिपिज्ञः कविः लाक्षणिकश्च लेखकः स्यात् । - Aho! Shrutgyanam

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