Book Title: Bharatiya Chintan ki Parampara me Navin Sambhavanae Part 2
Author(s): Radheshyamdhar Dvivedi
Publisher: Sampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi

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Page 361
________________ ३३६ भारतीय चिन्तन परम्परा की नवीन सम्भवनाएं प्रो. बदरीनाथ शुक्ल ने कहा--समस्याओं का आलोडन आज ही नहीं हो रहा है पुराने जमाने में भी हुआ है सुख की अभिलाषा मनुष्य की शाश्वत चाह है पर यह सुख हमारे वहाँ आत्यन्तिक दुःखनिवृत्तिपरक था। इसीलिए ऋषियों ने परा अपरा विद्या के द्वारा इनका समाधान किया। आज के विश्लेषण में यह बात भी ध्यान में रखा जाय कि वर्तमान परिस्थिति में किन आधारों पर छात्रों को चलाने का निर्देश दिया जाय । विवेक पर आधारित यदि जीवन-मार्ग ही उद्देश्य है तो उसके निर्धारण में अतीत के अनुभवों का उपयोग होना चाहिए। यदि परम्परा के क्रम में नये अनुभवों की व्याख्या की जायेगी तथा अपनाने या घटाने की बात की जायेगी तो निश्चय ही उनकी व्याख्या एवं पूर्ति की व्यवस्था सुपाच्य होगी । अन्यथा एक प्रश्न प्रस्तुत हो कर मान चिन्तन का विषय बन कर रह जायेगा। प्रो० करुणापतित्रिपाठी (कूलपति सं० सं० वि० वि०) ने कहा-तीन दिन के ज्ञानसत्र में जो निबन्ध तथा वाद-विमर्श हुए वह अवश्य नयी दिशा की ओर संकेत करते हैं। पर बुद्धिजीवी इस नये जीवन दृष्टि का मन्थन कर समाज के हित के लिए व्यावहारिक अमल यदि प्रदान करें तो अधिक इसकी उपयोगिता होगी। आज के प्रत्येक क्षेत्र, प्रत्येक भू-भाग राजनीतिक दृष्टि से प्रभावित हैं । प्रत्येक देश में परम्परागत कुछ विचार भी हैं इसलिए हमारे विचार विमर्श से ऐसा कोई आध्यात्मिक, मानसिक एवं व्यावहारिक धरातलका समन्वय निकलना चाहिए जो मानवहित का एक मात्र साधन बन सके। मैं इस गोष्ठी में भाग लेने वाले सभी अध्यापकों को धन्यवाद देता हूं तथा इस विचार मन्थन को मूर्तरूप देने की ओर बढ़ने की शुभ कामना करता हूँ। अन्त में गोष्ठी के संयोजक श्री राधेश्यामधरद्विवेदी ने तीनों विश्वविद्यालयों, गांधीविद्यासंस्थान, तिब्बतीसंस्थान तथा शहर के मान्य पण्डितों को इस नव चितन में योगदान के लिए धन्यवाद दिया। राधेश्यामधर द्विवेदी परिसंवाद-३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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