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२८८] भगवान पार्श्वनाथ । भी ममत्व न रहा ! सासारिक सम्पत्ति और विषयभोग उनको महादुःखदायी भासने लगे। विवेक नेत्रोके वल वह उनमे दुःख ही दुःख भरा देखने लगे ! वे ज्ञानवान थे। तीन ज्ञानके धारी जन्मसे थे-वे इंद्रियजनित विषय-सुखोंके इन्द्रायण सरीखे असली रूपको जानते थे ! फिर भला उनके लिये यह कैसे सम्भव था कि वह और अधिक समय गृहस्थ अवस्थामें बने रहते । विषसे अनभिज्ञ मनुष्य भले ही विष भक्षण कर ले. परन्तु जो विषको जानता है वह उसको कैसे खा सक्ता है ? राजकुमार पार्श्वनाथ जन्मसे ही निर्मल सम्यग्दर्शनके ज्ञाता थे-गृहस्थ दशामें भी वे संयमी जीवन व्यतीत करनेके इच्छुक थे, वे उत्तम मार्गका ही अनुसरण करना जानते थे, इसलिये उन्हें अपने स्वरूप रूप मुक्ति-धाम पानेकी योजना करना प्राकृत आवश्यक थी। वैराग्यका गादा रंग उनके मनको सम्बोर कर देगा, यह सर्वथा सुसंगत था। अनेक दोषोंके घर स्वरूप और त्याज्य विपयभोगोंसे पीछा छुडा लेना और परमार्थ सिन्हिके मग लग जाना ही बुद्धिमानोंका कार्य है। राजकुमार पार्वगायने सोचा कि जब स्वर्गाके सुखोंसे विषयतृप्णाकी तृप्ति न हुई, दो अब मनुप्यपदमें उमकी शांति क्या होगी ? एक कवि यही लिखते हैं - 'जो सागरके जलसेनी. न बुझी तिसना तिस एनी। मां दाम-अनीके पानी. पीवत अब कसे जानी ? दयनमा आगि न याप. नदियों नहिं समाप । यो भोग विप अनि भार्ग, नृपते न कभी तन धारी!' बरी पिवार हे गनकुमार पार्वनाथ संसारसे बिल्कुल