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बारहभावना : एक अनुशीलन
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ऐसे जीवों को समझाते हुए कविवर पंडित बनारसीदासजी लिखते हैं - "सील तप संजम विरति दान पूजादिक,
अथवा असंजम कषाय विषैभोग है। कोऊ सुभरूप कोऊ अशुभस्वरूप मूल
वस्तु के विचारत दुविध कर्मरोग है ॥ ऐसी बंधपद्धति बखानी वीतराग देव,
आतम धरम में करम त्याग-जोग है । भौजल तरैया राग-द्वेष को हरैया महा
मोख को करैया एक सुद्ध उपयोग है ॥" उक्त छन्द में अत्यन्त स्पष्टरूप से कहा गया है कि चाहे शील, तप, संयम, व्रत, दान और पूजन आदि का शुभराग हो अथवा असंयम, कषाय और विषयभोग आदि का अशुभराग हो; मूलवस्तु के विचार करने पर शुभ और अशुभ-दोनों ही प्रकार के भाव कर्मरूपी रोग ही हैं, कर्मबंध के कारण ही हैं, मोक्ष के कारण नहीं।।
वीतरागी सर्वज्ञ भगवान ने कर्मों के आस्रव और बंध की पद्धति इसीप्रकार बताई है; अतः आत्महितकारी धर्म में शुभ और अशुभ संभी कर्म समानरूप से त्यागने योग्य ही हैं।
संसारसागर से पार उतारनेवाला, राग-द्वेष को हरनेवाला और अनन्तसुखमय महान मोक्ष का करनेवाला तो एकमात्र शुद्धोपयोग ही है, शुभ और अशुभभावरूप अशुद्धोपयोग नहीं। • उक्त सन्दर्भ में आचार्यकल्प पंडित टोडरमलजी का निम्नांकित कथन द्रष्टव्य है -
"आस्रवतत्त्व में जो हिंसादिरूप पापास्रव हैं, उन्हें हेय जानता है; अहिंसादिरूप पुण्यास्रव हैं, उन्हें उपादेय मानता है; परन्तु यह तो दोनों ही कर्मबन्ध के कारण हैं, इनमें उपादेयपना मानना वही मिथ्यादृष्टि है। वही समयसार के बन्धाधिकार में कहा है - १. समयसार नाटक; पुण्य-पाप एकत्व द्वार, छन्द ७