________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अतसी
मतसी
२३४ ऑलियम् लाइनाई-(Oleum Lini) -ले० । लिन्सीड ऑइल ( Linseed oil) -०। अत्तसी तेल ।
मृदुताजनक रूप से इसका बहिर प्रयोग होता है।
प्रभाव तथा उपयोग-लाइनम् कंट्यु ज़म् अर्थात् कुट्टित अतसी उत्कारिका (पुल्टिस ) रूप में स्थानिक प्रदाहों पर अवांतर आर्द्र उष्मा के उपयोग की सर्वोत्तम माध्यम है। जब अलसी की उष्ण पुल्टिस किसी भाग पर लगाई जाती है तब उप्मा के प्रभाव से तुद्र स्रोतस् ( Small vessels ) अबाध्य रूप से विस्तार को प्राप्त होते हैं और स्वगीय मांस तत्व, लोमकोष तथा ग्रन्थिक नलिकाएँ शिथिल हो जाती हैं । अतएव धातुएँ कोमल हो जाती हैं और कठोरता की अनुभूति एवं प्रादाहिक तनाव का सर्वथा लोप हो जाता है अथवा उसमें कमी आती है। रुधिर के धरातल की ओर आकृष्ट हो जाने के कारण बोध तन्तुओं के अन्तिम भागों को दबाव की कम अनुभूति होती है । कूल्हे की सन्धि के प्रदाह में उष्ण उत्कारिका के प्रयोग से कभी कभी मांसपेशीय प्राकुञ्चन शिथिल हो जाता है और स्थानान्तरित जानु वेदना घट जाती है। ___ पुल्टिस को फलालैन पर फैलाना चाहिए
और उसे इतना गरम रखना चाहिए जितना सुखपूर्वक सहन होसके । स्थानिक उत्तेजक प्रभाव
के कारण अत्यधिक उष्ण पुल्टिस से प्रायः तनाव एवं वेदना की वृद्धि होगी।
प्रायः यह प्रश्न होता है कि स्थानिक प्रदाह यथा हिटलो (नाखन खोरा) में पुल्टिस का व्यवहार किस समय किया जाना चाहिए ? यदि बहुत पहिले पुल्टिस का उपयोग किया जाता है तो फलतः धातु ( Tissue) का सार्वागिक शैथिल्य उपस्थित होता है और तनाव जो जीवन के लिए घातक है दूर होजाता है तथा उसके | सय की अधिकतर संभावना होती है ।। परन्तु, यदि प्रदाह यहाँ तक विवर्धित होगया हो।
कि श्वेताण तत्व स्रोत के परदे से बाहर भागए हों अथवा पूय एकत्रित होगया हो तो पुल्टिस उसको धरातल तक पहुँचाने में सहायक होती है । अतः पुल्टिसें (उत्कारिकाएँ) प्रदाह की समग्र दशाओं में उपयोगी होती हैं। यदि उनका उपयोग बहुत पहिले किया जाए तो वे पूय निर्माण को रोक देती हैं और उन्नत अवस्था में उसके निर्माण में शीघ्रता उपस्थित करतीं एवं उसे साहस प्रदान करती हैं। यदि उनमें पचननिवारक गुण वर्तमान होता तो उनसे प्रत्येक अभीष्ट की सिद्धि होती। तलाक रेशम में श्रावृत्त करमे पर यही का हम स्पिरिट लोशन या बोरिक लोशन में पाते हैं।
बन्स या स्केल्ड्स अर्थात् अग्निदग्ध या आग से जले हुए स्थान पर अतसी तैल में सम भाग चूने का पानी मिलाकर, जिसको कैरन आइल ( Carron oil) कहते हैं लगाना उपयोगी होता है। वृहदान्य के अधोभाग में जब अवरोध के कारण मलावरोध हो तब कभी कभी आधा पौंड ( पाव ) अतसी तैल की वस्ति करने से विष्टम्भ दूर होकर एक दो दस्त श्रा जाते हैं । वि० हिटला० ।। कूटी हुई अलसी की पुलटिस को प्रादाहिक रोगों और फोड़े फुन्सियों पर लगाते हैं। इसके लगाने से न केवल वेदना कम हो जाती है, प्रत्युत शोथ भी कम हो जाता है, और यदि सूजन में पीव पड़ गई हो तो उसके विसर्जन में सहायता मिलती है। गंभीर शोधों जैसे फुफ्फुसौप; फुफ्फुसावरण प्रदाह, कास, परिविस्मृत कला प्रदाह, सन्धि प्रदाह (Arthritis) इत्यादि रोगों में अलसी की पुल्टिस प्रत्युत्तम अल्प स्थानिक उग्रतासाधक (काउंटर इरिटेट) है।
इसके उक्त प्रभाव को किञ्चित् प्रभावशाली बनाने के लिए पुल्टिस के धरातल ( सतह ) पर विचूर्णित राई छिद्रक देते अथवा कैम्फोरेटेड श्रॉइल ( कपूर मिलित तेल ) चुपड़ देते हैं या पुल्सि बनाते समय १६ भाग अलसी में १ भाग राई मिला देते हैं।
For Private and Personal Use Only