Book Title: Avashyaka Kriya Sadhna
Author(s): Ramyadarshanvijay, Pareshkumar J Shah
Publisher: Mokshpath Prakashan Ahmedabad

View full book text
Previous | Next

Page 200
________________ एवं यन्नामाक्षरपुरस्सरं संस्तुता जयादेवी । कुरुते शान्ति नमतां, एवम् यन्-ना- माक्षरपुरस्- सरम् - सन्- स्तुता जया देवी । कुरुते - शान्- तिम्-नम - ताम्, नमो नमः शान्तये तस्मै ॥ १५ ॥ नमो-नमः शान्-तये-तस्-मै ॥१५॥ गाथार्थ : इस तरह जिस की नामाक्षर मंत्र सहित स्तुति की गई है, ऐसी श्री जयादेवी ! ( श्री शान्तिनाथजी को ) नमस्कार करनेवाले (लोगों ) को शान्ति देती है। उस श्री शान्तिनाथ भगवान को नित्य नमस्कार हो । १५. इति - पूर्व-सूरि-दर्शितमंत्र-पद- विदर्भितः स्तव:- शान्ते: । इति- पूर्व-सूरि-दर्-शितमन्-त्र-पद- विदर्-भितःस्त-व:- शान्तेः । सलिला-दि-भय-वि-नाशी, शान्-त्या-दि-करश्-चभक् ति मताम् ॥१६॥ सलिलादि-भय-विनाशी, शान्त्यादि-करश्च भक्तिमताम् ॥१६॥ गाथार्थ : इस तरह पूर्वाचार्यों ने बताए हुए मंत्रों के पद से गर्भित, श्री शान्तिनाथ भगवान का स्तव पानी विगेरे के भय का नाश करनेवाला और भक्ति करनेवाले मनुष्यों को शान्ति विगेरे सुख देने वाला है । १६. यश्- चैनम् - पठ-ति-सदा, उपसर्गाः क्षयं यान्ति, छिद्यन्ते विघ्न-वल्लयः । मनः प्रसन्न - तामेति, इस तरह जिस की नामाक्षर मंत्र सहितस्तुति की गई है, ऐसी श्री जयादेवी ! श्री शान्तिनाथजी को नमन करनेवाले लोगो को शान्ति देती है, उस शान्तिनाथजी को नित्य नमस्कार हो । १५. बृहद् गच्छ के प्रसिद्ध प्रभावक, अनंतकरुणा सागर, पूज्यपाद आचार्य देव श्रीमद् विजय मानदेवसूरिजी महाराज साहेब नाडुल नगर में चातुर्मास रहे थे। उस समय दौरान शाकंभरी नगरी के शाकिनी व्यंतरी ने श्री संघ में मरकी-रोग उत्पन्न कर पीडा देने लगी। तब श्री संघ की विनति से (जया - विजया और अपराजिता देवी जिनके सान्निध्य में नित्य रहती थी इस तरह पूर्वाचार्योंने बताए मंत्रों के पद से गर्भित, यश्चैनं पठति सदा, शृणोति भावयति वा यथायोगं । शृणो-ति-भाव-यति-वा-यथा-योगम् । सुनता है अथवा मनन करता है, वह अवश्य शान्ति के स्थान को पाता है, स हि शान्ति पदं यायात्, सूरिः श्रीमान - देवश्च ॥१७॥ गाथार्थ : और जो मनुष्य इस (श्री स-हि-शान्-ति-पदम् - या यात्, सूरि :- श्री - मान-देवश्च ॥१७॥ श्री मानदेवसूरि भी शान्ति को पाते हैं । १७. लघु शान्ति स्तव) स्तवन को विधिपूर्वक पढ़ता है, सुनता है अथवा मनन करता है, वह (मनुष्य) अवश्य शान्ति के स्थान (मोक्ष) को पाता है और श्री मानदेवसूरि ( इस स्तोत्र के रचयिता ) भी शान्ति पद को पाते हैं । १७. सभी उपसर्ग नाश पाते हैं, उप-सर्गाः क्षयम्-यान्-ति, छिद्यन्-ते-विघ्-न-वल्-लयः । मनः प्रसन्-न-ता-मेति, विघ्न रुपी लताओं का छेदन होता हैं। मन प्रसन्नता को पाता है, श्री जिनेश्वर के पूजन से । १८. पूज्यमाने जिनेश्वरे ॥१८॥ पूज्य - माने-जि-नेश् वरे ॥ १८ ॥ गाथार्थ : श्री जिनेश्वर देव के पूजन के प्रभाव से उपसर्ग नष्ट होते हैं, विघ्न रुपी लताओं का छेदन होता हैं और मन प्रसन्नता को पाता है । १८. ,ऐसे) श्री मानदेवसूरिजीनें 'श्री लघुशान्तिस्तव' की रचना की और उस " स्तव के प्रभाव से मरकी रोग का उपद्रव भी शान्त हुआ । यह स्तव पढ़ने से, सुनने से और स्तव से अभिमंत्रित जल को छिटकने से सभी उपद्रव नाश पाने लगे । अतः यह स्तव बोलना प्रारंभ हुआ । हुए श्री शान्तिनाथजी का स्तव जल विगेरे के भय का नाश करनेवाला, और भक्ति करनेवाले मनुष्यों को शान्ति विगेरे सुख देनेवाला है । १६. और जो मनुष्य ईस स्तव को विधिपूर्वक नित्य पढ़ता है, सर्व मंगल मांगल्यं, सर्व कल्याण कारणम् । सर्-व-मङ्-गल-माङ्-गल्-यम्, सर्व-कल्याण-कार-णम् । प्रधानम्-सर्व-धर्माणाम्, जै-नम् - जयति - शास-नम् ॥१९॥ सर्व मंगलों में परम मंगल, सर्व कल्याण के कारणभूत, सर्व धर्मों में प्रधान धर्म (ऐसा ) श्री जैन धर्म जयवंत है । १९. प्रधानं सर्व-धर्माणां, जैनं जयति शासनम् ॥१९॥ गाथार्थ : सर्व (सभी ) मंगलों में श्रेष्ठ मंगलभूत, सभी कल्याण के कारणभूत और सभी धर्मों में प्रधानभूत, ऐसा श्री जैन धर्म जयवंत है । १९. यह 'श्री लघुशान्ति स्तव' मांगलिक रुप से सर्वत्र बोलना शुरु हुआ । प्रायः ५०० वर्ष पहले एक यति के पास उदयपुर में बारबार श्रावक आकर यह 'स्तव' सुनाने की विनति करने लगे । तब यतिजी ने देवसिअ प्रतिक्रमण में दुक्खक्खय-कम्मक्खय के कायोत्सर्ग के बाद यह 'स्तव' सुनने का और बोलने का ठराव किया । उस दिन से यह बोलने सुनने की प्रथा प्रचलित है, ऐसा वृद्ध-वाद है । prayer

Loading...

Page Navigation
1 ... 198 199 200 201 202 203 204 205 206 207 208 209 210 211 212 213 214 215 216 217 218 219 220 221 222 223 224 225 226 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238 239 240 241 242 243 244 245 246 247 248 249 250 251 252 253 254 255 256 257 258 259 260 261 262 263 264 265 266 267 268 269 270 271 272 273 274