Book Title: Atmonnati Digdarshan
Author(s): Vijaydharmsuri
Publisher: Yashovijay Jain Granthmala

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Page 24
________________ ( २२ ) सान कर संसार सागर में भ्रमण करने के वास्ते भव बढ़ाता रहता है। संक्षिप्त में कहें तो जीव, इस संसार में नट की तरह नये २ वेषों को धारण करता है । इस स्थिति का अनुभव समग्र प्राणी करते हैं। इस लिये इस विषय में अधिक न कहते हुए आठ कर्मों के नाश के वास्ते आत्मार्थी जीवों को कौन से मार्ग का अनुसरण करना चाहिये, इस पर अवलोकन - विचार करें । इस विषय में संक्षेप में कहा जाय तो सदाचार और सदविचार ये दो कर्मनाश के उत्तम साधन हैं। सदाचार का पालन करने के वास्ते ही समस्त शास्त्रों की रचना हुई है, यदि ऐसा कहा जाय तो किसी प्रकार की अतिशयोक्ति नहीं है । सामान्य रीत्या सदाचार का स्वरूप इस प्रकार है: लोकापवादभीरुत्वं दीनाभ्युद्धरणादरः । कृतज्ञता सुदाक्षिण्यं सदाचारः प्रकीर्त्तितः || अर्थात् - लोक ( प्रामाणिक लोक ) के अपवाद से डरते रहना - लोक विरुद्ध कार्य का त्याग करना । अन्तःकरण शुद्ध हो, और कार्य भी उत्तम हो, परन्तु लोकदृष्टि से यदि वह अनुचित - अयोग्य होवे, तो उस कार्य से दूर रहना चाहिए। दीन अर्थात् धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष - इन Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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