Book Title: Atmavilas
Author(s): Atmanandji Maharaj
Publisher: Shraddha Sahitya Niketan

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Page 501
________________ भोग भोगलेना हो हमारा कर्तव्य है। ऐसी सकामीकी दृष्टि होती है और इसी भावसे वह संसारको देखता व वर्तता है। 'यह संमार विगड़ा हुआ है. इसका सुधार करना हमारा कर्तव्य है। ऐसी निष्कामीको दृष्टि होती है और इसी भावसे वह संसार को ग्रहण करता है। यह संसार भगवानकी ही छविरूप है, इन मव रूपोंमें वह छैल-छवीला ही अपनी मॉकी दिखला रहा है। ऐसी निष्काम-भक्तकी दृष्टि होती है और इसी भावसे वह संसारको देखता है। यह संसार अत्यन्त दुःखरूप है और प्रलय कालकी अग्निके समान तप रहा है, बारम्बार जन्म-मरण के चक्रमें पड़ना महान् दुःख है किसी प्रकार मैं इससे छूट ऐसी वैराग्यगन्की दृष्टि होती है और इसी भावसे वह संसार को देवता है। यह संसार अपने स्वरूपसे कदाचित् कुछ हुआ ही नहीं, किन्तु यह तो मेरे आत्माका चमत्कार ही है, अथोत् मेरे श्रात्माका विवत है और परमानन्दस्वरूप ही है ऐसी मातात्कारवान् तत्त्ववेचाकी दृष्टि होती है और इसी भावसे वह संसारको देखता है । (विस्तारके लिये देखो गीतादर्पणप्रस्तावना पृ० १२० से १२०)। इस प्रकार हम इस परिणामपर पहुँचते हैं कि 'भावके विना न मनका ही कोई स्वरूप मिलता है और न भव (संसार) का ही अर्थात् ये कह लीजिये कि मन और संसारके बीचमे एकमात्र भाव ही है, जो दोनोंको सिद्ध कर रहा है, जिसके द्वारा दोनोंका संयोग होता है और जिसके लय हुए दोनों (मन व भव) लय हो जाते हैं। अव आयो विचार करें कि मनकी एकाग्रता क्या है, वह किस प्रकार सम्पादन की जानीचाहिये और उसका फल क्या है? लेखकके विचारसे किसी प्रकारकी प्राण-निरोधादिरूप क्रियात्मक चेष्टाओंद्वारा मनको भावशून्य कर देना, मनकी एकाग्रता नहीं

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