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आत्मतत्व-विचार
है और देवता का जीवन भोगता है। मनुष्य के आयुष्य के कारण मनुष्यलोक में उत्पन्न होता है और मनुष्य का जीवन भोगता है। तिर्यंच के आयुष्य के कारण तिर्यञ्च-गति में उत्पन्न होता है और तिर्यञ्च का जीवन भोगता है। (तिर्यञ्च गन्द से जलचर, खेचर, भूचर तिर्यञ्च ही नहीं बल्कि एकेन्द्रिय, बेइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चौइन्द्रिय और असंगी पंचेन्द्रिय जीव भी समझने चाहिएँ)। नरक का आयुष्य बाँधने से मनुष्य नरक मे उत्पन्न होता है और नारकी जीवन व्यतीत करता है।
देव, मनुष्य और तिर्यञ्च सब को अपना-अपना जीवन प्रिय होता है, इसलिए इन तीनो प्रकार के आयुष्य को शुभ समझना चाहिये । नारकी जीव मरण चाहते है, इसलिए उनके आयुष्य को अशुभ समझना चाहिये ।
आप कहेगे कि 'मनुष्यों में भी बहुत से मर जाने की इच्छा करते हैं, तो इस आयुष्य को भी अशुभ क्यो न समझे ?' पर, ऐसे लोग बहुत कम होते हैं और वे भी अत्यन्त दुखी दशा मे हो तभी मर जाना चाहते है । दुःख का नाग होते ही और सुख का समय आते ही वह विचार बदल जाता है अर्थात् उन्हे जीवन अति प्रिय हो जाता है। नारकी को तो जीवन अच्छा ही नहीं लगता।
मौत चाहनेवाले लकड़हारे की कथा एक लकडहारा था । वह सारे दिन मेहनत करके लकड़ियाँ इकही करता, बाजार में बेचता और अपना पेट पाल्ता। उसके पास पहनने के पूरे कपड़े भी नहीं थे। दो लंगोटियो से अपना काम चलाता। वह गाँव के बाहर एक टूटी-फूटी औपड़ी में रहता था।
उसकी उम्र करीब अस्सी बरस की थी। शारीरिक दुर्बलता के कारण वह अधिक परिश्रम नहीं कर सकता था। एक दिन दुःस्त्री होकर वह जगल में भगवान् से मौत मॉगने लगा-"हे भगवान् । अब तो तू मौत भेज देता तो अच्छा था।"