Book Title: Ashtpahud
Author(s): Parasdas Jain
Publisher: Bharatvarshiya Anathrakshak Jain Society

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Page 102
________________ [ 58 ] गाथा - पंचविहचेल चायं खिदिसयणं दुविहसंजमं भिक्खू । भावं भाविय पुव्वं जिरणलिंगं गिम्मलं सुद्धं ॥ ८१ ॥ छाया - पंचविधचेलत्यागं क्षितिशयनं द्विविधसयमं भिक्षुः । .भावं भावयित्वा पूर्वं जिनलिंगं निर्मलं शुद्धम् ॥ ८१ ॥ अर्थ - जहां रेशम, ऊन, सूत, छाल और चमड़ा इन पांच प्रकार के वस्त्र का त्याग किया जाता है, भूमि पर सोया जाता है, दो प्रकार का संयम ( इन्द्रिय संयम और प्रारण संयम ) पाला जाता है, भिक्षावृत्ति से भोजन किया जाता है और पहले आत्मा के शुद्ध भावों का विचार किया जाता है, ऐसा अन्तरंग और बहिरंग मलरहित जिनलिंग होता है ||१|| गाथा —जह रयणारणं पवरं वज्जं जह तरूगणारण गोसीरं । तह धम्माणं पवरं जिणधम्मं भावि भवमहणं ||२|| छाया -यथा रत्नानां प्रवरं वज्रं यथा तरुगणानां गोशीरम् । तथा धर्माणां प्रवरं जिनधर्मं भावय भवमथनम् ॥८२॥ अर्थ — जैसे सब रत्नों में उत्तम वत्र अर्थात् हीरा है और जैसे सब पेड़ों में उत्तम चन्दन है, वैसे ही सब धर्मो में उत्तम जिनधर्म है, जो संसार का नाश करने वाला है । है मुनि ! तू उस उत्तम जिनधर्म का चिन्तवन कर ||२|| गाथा - पूयादिसु वयसहियं पुराणं हि जिरोहिं सासणे भणियं । मोहक्खहविहीर परिणामो अपणो धम्मो ॥ छाया - पूजादिषु व्रतसहितं पुण्यं हि जिनैः शासने भणितम् । मोहक्षोभविहीनः परिणामः आत्मनः धर्मः || ८३ ॥ अर्थ — जिनेन्द्र भगवान् ने उपासकाध्ययन शास्त्र में ऐसा कहा है कि पूजा आदि धर्म क्रियाओं का व्रत सहित होना पुण्य है अर्थात् इनको नियमपूर्वक करना पुण्यबन्ध का कारण है । तथा मोह और चित्त की चंचलता रहित आत्मा का परिणाम धर्म है ॥ ८३॥ गाथा - सद्दहदि य पत्तेदि य रोचेदिय तह पुणो वि फासेदि । पुणं भोयणिमित्तं हु सो कम्मक्खयणिमित्तं ॥ ८४॥ |

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