Book Title: Ashtpahud
Author(s): Kundkundacharya, Shrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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-४.५९]
बोधप्रामृतम् जातिमूर्तिश्च तत्रस्थं लक्षणं सुन्दराङ्गता । प्रभामण्डलचक्राणि तथाभिषवनाथते ॥१॥ सिंहासनोपघाने च छत्रचामरघोषणाः । अशोकवृक्षनिधयो गृहशोभावगाहने ॥२॥ क्षेत्राज्ञे तत्समा कोतिवंधता वाहनानि च ।
भाषाहारसुखानीति जात्यादिः सप्तविंशतिः ॥३॥ इति त्रिभिः श्लोकैः सप्तविंशतिः प्रव्रज्यासूत्रपदानि ज्ञातव्यानि । एतेषां विवरणं तैरेव कृत वर्तते तथा हि
जात्यादिकानिमान् सप्तविंशति परमेष्ठिनाम् । गुणानाहु जेदीक्षां स्वेषु तेष्वकृतादरः ॥१॥ जातिमानप्यनुसिक्तः संभजेदहतां क्रमौ ।
यतो जात्यन्तरे जात्यां याति जाति चतुष्टयीं ॥२॥ जाती भवा जात्या तां जात्यां उत्तमां जाति मुनिर्याति । कस्मिन् जात्यन्तरे चतुःप्रकारजातिभेदे । किं कुर्वाणः ? अहत्क्रमो भजमानः ।
___ जाति-जाति, मूर्ति, उसमें रहने वाले लक्षण, शरीरको सुन्दरता, प्रभा, मण्डल, चक्र, अभिषेक, नाथता, सिंहासन, उपधान, छत्र, चामर, घोषणा, अशोक वृक्ष, निधि, गृहशोभा, अवगाहन, क्षेत्रज्ञ, आज्ञा, सभा,
कोति, वन्दनीयता, वाहन, भाषा, आहार और सुख ये जाति आदि .. सत्ताईस सूत्रपद कहलाते हैं ॥१-३॥
इन तीन श्लोकोंके द्वारा प्रव्रज्या के सत्ताईस सूत्र पद जानना चाहिये। इनका वर्णन उन्हीं जिनसेनाचार्य ने किया है जो इस
प्रकाराहै.. जात्याविका-ये जाति आदि सत्ताईस सूत्र पद परमेष्ठियों के गुण
कहलाते हैं। उस भव्य पुरुष को अपने जाति आदि गुणोंसे आदर न करते हुए दीक्षा धारण करना चाहिये। (ये जाति आदि गुण जिस प्रकार परमेष्ठियों में होते हैं उसी प्रकार दीक्षा लेने वाले शिष्य में भी यथासंभव रूपसे होते हैं परन्तु शिष्यको अपने जाति आदि गुणों का सन्मान
१. क्षेत्रसाशासभाः महापुराणे । २. महापुराणे पर्व ३९ । ३. स्तेषु म०। ४. महापुराणे १६६-१६७ पर्व ३९
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