Book Title: Ashtavakra Mahagita Part 02
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Rebel Publishing House Puna

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Page 399
________________ स्वप्न, जो तुम्हें जबर्दस्ती पहनाए गए थे। अब उस स्वप्न की कोई सार्थकता न रही। जब वे वस्त्र ही चले गए, तो उन वस्त्रों के कारण जो छाया पैदा हुई थी, वह छाया भी विदा हो गई। सिक्के का एक पहलू चला गया, दूसरा पहलू भी चला गया। अब तुमने खुद अपनी इच्छा से वस्त्र चुने हैं। इसलिए नग्न होने का भाव तो पैदा नहीं होता। 'लेकिन कभी-कभी गैर-गैरिक वस्त्रों में अपने को सपने में देखता हूं। अब यह थोड़ा समझने जैसा है। यदयपि इन वस्त्रों के साथ वैसा विरोध नहीं है, जैसा कि मां -बाप के दवारा पहनाए गए वस्त्रों के साथ था, यह तुमने अपनी मर्जी से चुना है लेकिन फिर भी, जो भी चुना है, उसकी भी छाया बनेगी। धूमिल होगी छाया, उतनी प्रगाढ़ न होगी। जो तुम्हें जबर्दस्ती चुनवाया गया था, तो उसकी छाया बड़ी मजबूत होगी। जो तुमने अपनी स्वेच्छा से चुना है उसकी छाया बहु त मद्धिम होगी मगर होगी तो! क्योंकि जो भी हमने चुना है उसकी छाया बनेगी। वह स्वेच्छा से चुना है या जबर्दस्ती चुनवाया गया है यह बात गौण है। चुनाव की छाया बनेगी। सिर्फ अचुनाव की छाया नहीं बनती। सिर्फ साक्षी- भाव की छाया नहीं बनती। कर्तृत्व की तो छाया बनेगी। यह संन्यास भी कर्तृत्व है। यह तुमने सोचा, विचारा, चुना। इसमें आनंद भी पाया। लेकिन स्वप्न बड़ी सूचना दे रहा है। स्वप्न यह कह रहा है कि अब कर्ता के भी ऊपर उठो, अब साक्षी बनी। साक्षी बनते ही स्वप्न खो जाते हैं-तुम यह चकित होओगे जान कर। वस्तुत: कोई व्यक्ति साक्षी बना या नहीं, इसकी एक ही कसौटी है कि उसके स्वप्न खो गए या नहीं? जब तक हम कर्ता हैं तब तक स्वप्न चलते रहेंगे। क्योंकि करने का मतलब है : कुछ हम चुनेंगे! अब समझो, अजित ने जब संन्यास लिया तो एकदम से कपड़े नहीं पहने। अजित ने जब संन्यास लिया शुरू में, तो ऊपर का शर्ट बदल लिया, नीचे का पैंट वे सफेद ही पहनते रहे। दवंदव रहा होगा। मन कहता होगा. 'क्या कर रहे घर है, परिवार है, व्यवसाय है!' अजित डाक्टर हैं, प्रतिष्ठित डाक्टर हैं। ' धंधे को नुकसान पहुंचेगा। लोग समझेंगे पागल हैं! यह डाक्टर को क्या हो गया?' माला भी पहनते थे तो भीतर छिपाए रखते थे-अब मुझसे छुपाया नहीं जा सकता। जो -जो भीतर छुपा रहे हैं, वे खयाल रखना-उसको भीतर छपाए रखते थे। फिर धीरे - धीरे हिम्मत जुटाई, माला बाहर आई। जब भी मुझे मिलते, तो मैं उनसे कहता रहता कि अब कब तक ऐसा करोगे? अब यह पैंट भी गेरुआ कर डालो। वे कहते. करूंगा, करूंगा..| धीरे- धीरे ऐसा कोई दो-तीन साल लगे होंगे। तो दो -तीन साल जो मन डावांडोल रहा, उसकी छाया है भीतर। चुना इतने दिनों में, सोच-सोच कर चुना-धीरे -धीरे पिघले, समझ में आया। फिर पूरे गैरिक वस्त्रों में चले गए। लेकिन वह जो तीन साल डावांडोल चित्त-दशा रही-चुनें किन चुनें, आधा चुनें आधा न चुनें उस सबकी भीतर रेखाएं छट गईं। वह स्वप्नों में प्रतिबिंब बनाएंगी। जो भी हम चुनेंगे. चुनाव का मतलब यह होता है : किसी के विपरीत चुनेंगे। जो कपड़े वे पहने थे, उनके विपरीत उन्होंने गेरुए वस्त्र चुने। तो जिसके विपरीत चुने, वह बदला लेगा। जिसके विपरीत चुने, वह प्रतिशोध लेगा, वह भीतर बैठा-बैठा राह देखेगा कि कभी कोई मौका मिल जाए तो मैं बदला

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