Book Title: Ashtapahud
Author(s): Kundkundacharya, 
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 382
________________ ३४४ बारहवें गुणस्थान के अन्त में होता है यह मन का विकल्प मिटकर विशुद्ध होना है। पीछे घातिया कर्म का नाश होकर अनन्त चतुष्टय प्रकट होते हैं, यह कर्मरज का उड़ना है, इसप्रकार आराधना की संपूर्णता प्रकट होना है। जो चरमशरीरी हैं उनके तो इसप्रकार आराधना प्रकट होकर मुक्ति की प्राप्ति होती है । अन्य के आराधना का एकदेश होता है अंत में उसका आराधन करके स्वर्ग प्राप्त होता है, वहाँ सागरों पर्यंत सुख भोग कर वहाँ से चयकर मनुष्य हो आराधना को संपूर्ण करके मोक्ष प्राप्त होता है, इसप्रकार जानना, यह जिनवचन का और शील का माहात्म्य है || ३९॥ आगे ग्रंथ को पूर्ण करते हैं वहाँ ऐसे कहते हैं कि ज्ञान से सर्वसिद्धि है यह सर्वजन प्रसिद्ध है वह ज्ञान तो ऐसा हो उसको कहते हैं अरहंते सुहभत्ती सम्मत्तं दंसणेण सुविसुद्धं । सीलं विसयविरागो णाणं पुण केरिसं भणियं ।। ४० ।। अष्टपाहुड अर्हति शुभभक्तिः सम्यक्त्वं दर्शनेन सुविशुद्धं । शीलं विषयविरागः ज्ञानं पुनः कीदृशं भणितं ॥ ४०॥ अर्थ - अरहंत में शुभ भक्ति का होना सम्यक्त्व है, वह कैसा है ? सम्यग्दर्शन से विशुद्ध है तत्त्वार्थों को निश्चय-व्यवहारस्वरूप श्रद्धान और बाह्य जिनमुद्रा नग्न दिगम्बररूप का धारण तथा उसका श्रद्धान ऐसा दर्शन से विशुद्ध अतीचार रहित निर्मल है - ऐसा तो अरहंत भक्तिरूप सम्यक्त्व है, विषयों से विरक्त होना शील है और ज्ञान भी यही है तथा इससे भिन्न ज्ञान कैसा कहा है ? सम्यक्त्व शील बिना तो ज्ञान मिथ्या ज्ञानरूप अज्ञान है । भावार्थ - यह सब मतों में प्रसिद्ध है कि ज्ञान से सर्वसिद्धि है और ज्ञान शास्त्रों से होता है। आचार्य कहते हैं कि हम ज्ञान उसको कहते हैं जो सम्यक्त्व और शील सहित हो, ऐसा जिनागम में कहा है, इससे भिन्न ज्ञान कैसा है ? इससे भिन्न ज्ञान को तो हम ज्ञान नहीं कहते हैं, इनके बिना तो वह अज्ञान ही है और सम्यक्त्व व शील हो वह जिनागम से होते हैं । वहाँ जिसके द्वारा सम्यक्त्व शील हुए और उसकी भक्ति न हो तो सम्यक्त्व कैसे कहा जावे, जिसके वचन द्वारा विषय से वैराग्य अर्हतभक्ति सम्यक्दर्श से । अरशील से संयुक्त ही हो ज्ञान की आराधना ।। ४० ।।

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