Book Title: Ashtak Prakaran
Author(s): Manoharvijay
Publisher: Gyanopasak Samiti

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Page 102
________________ ८५ केवलज्ञानाष्टकम् [३०] सामायिकविशुद्धात्मा सर्वथा घातिकर्मणः । क्षयात्केवलमाप्नोति लोकालोकप्रकाशकम् ॥१॥ भावार्थ-सामायिक द्वारा सुविशुद्ध होनेवाली प्रात्मा घाति-कर्मों का सर्वथा क्षय हो जाने से, समस्त लोकालोकप्रकाशक केवलज्ञान को प्राप्त करती है । ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय, मोहनीय, आयुष्य, नाम, गोत्र एवं अंतराय ये आठ कर्म हैं । इन आठों में से प्रात्मा के केवलज्ञान अर्थात् केवलदर्शन आदि मूलगुणों का घात करने वाले-ज्ञानाबरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय एवं अंतराय इन चार कर्मों को पाति-कर्म कहते हैं । इन धाति-कर्मों के नाश से जीव लोकालोकप्रकाशक केवलज्ञान पाता है । [१]. ज्ञाने तपसि चारित्रे सत्येवास्योपजायते। विशुद्धिस्तदतस्तस्य तथा प्राप्तिरिहेष्यते ॥२॥ भावार्थ-ज्ञान, तप और चारित्र के होने पर ही सामायिक की विशुद्धि होती है, अतः सामायिक द्वारा आत्मा को उक्त रीति से केवल ज्ञान की प्राप्ति होती है, ऐसा माना गया है-[२]. स्वरूपमात्मनो ह्य तत्किन्त्वनादिमलावृतम् । जात्यरत्नांशुवत्तस्य क्षयात्स्यात्तदुपायतः ॥३॥

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