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आप्तवाणी-१३ (उत्तरार्ध)
प्रश्नकर्ता : तो फिर वह कौन सा ज्ञान था? दादाश्री : खुद के मूल स्वरूप का ज्ञान। प्रश्नकर्ता : निरालंब आत्मा, उन्हें पूर्णतः प्राप्त हो गया था?
दादाश्री : चरम स्थिति वाला निरालंब आत्मा ही प्राप्त हो गया था, वर्ना सिगड़ी जलाने पर आत्मा हाज़िर नहीं रह पाता। कहीं और ही चला जाता। चरम आत्मा का मतलब यह नहीं है, वह नहीं है, फलाँ नहीं है, यह नहीं, वह नहीं। यह नहीं, वह नहीं, वह नहीं, वह नहीं, वह नहीं... वह। भगवान तू कैसा निरालंब!
भगवान ने उन्हें समझाया था कि, "बहुत बड़ा उपसर्ग आ पड़े तब 'शुद्धात्मा', 'शुद्धात्मा' मत करना। शुद्धात्मा तो स्थूल स्वरूप है, शब्द रूपी है, उस समय तो सूक्ष्म स्वरूप में चले जाना।" उन्होंने पूछा, 'सूक्ष्म स्वरूप क्या है ?' तब भगवान ने समझाया था कि, 'सिर्फ केवलज्ञान ही है, अन्य कोई भी चीज़ नहीं'। गजसुकुमार ने पूछा, 'मुझे केवलज्ञान का अर्थ समझाइए'। भगवान ने समझाया, 'केवलज्ञान, वह तो आकाश जैसा सूक्ष्म है, जबकि अग्नि स्थूल है। जो स्थूल है, वह सूक्ष्म को कभी भी नहीं जला सकता। मारा जाए, काटा जाए, जलाया जाए तब भी खुद के केवलज्ञान स्वरूप पर कोई भी असर नहीं हो सकता'। जब गजसुकुमार के माथे पर अंगारे धधक रहे थे तब उन्होंने कहा 'मैं केवलज्ञान स्वरूप हूँ' और तभी खोपड़ी फट गई, लेकिन उन पर कोई भी असर नहीं हुआ!
'शुद्धात्मा' शब्द तो सिर्फ संज्ञा ही है। उसकी वजह से 'मैं शुद्ध ही हूँ, त्रिकाल शुद्ध ही हूँ', इस संज्ञा में रह पाते हैं। शुद्धता के प्रति निःशंकता उत्पन्न हो जाए, उसके बाद वाला पद है 'केवलज्ञान स्वरूप' 'अपना'! आप (महात्मा) 'शुद्धात्मा' के रूप में रहते हो, हम 'केवलज्ञान' रूप में रहते हैं!
पूरे वर्ल्ड का अद्भुत पुरुष है 'यह !' 'केवलज्ञान स्वरूपी' आत्मा को जान लिया, उसी को 'जानना' कहते हैं।