Book Title: Aptavani Shreni 08
Author(s): Dada Bhagwan
Publisher: Dada Bhagwan Aradhana Trust

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Page 334
________________ आप्तवाणी-८ २९५ नहीं करना है। यदि कोई दृष्टि बदल दे न तो आपको भी सब वैसा ही दिखेगा फिर! दृष्टि एक बार बदलने के बाद, वह दृष्टि खिलती जाती है, और वैसेवैसे 'खुद' 'भगवान' होता जाता है। लेकिन जब तक दृष्टि खिली नहीं है, तब तक तो जेब कटी तो जेबकतरे को गुनहगार मानता है। दृष्टिदोष से पुद्गल अन्य स्वरूप में दिखता है। प्रश्नकर्ता : यह चर्मचावाली दृष्टि का दोष कहलाएगा न? अज्ञानता में होंगे तो पता ही किस तरह चलेगा कि 'हम अज्ञानता में हैं?' दादाश्री : ऐसा पता ही नहीं चलता न ! फिर जैसी उसकी दृष्टि होती है न, वैसा ही बन जाता है, इस चमड़े की आँखवाली दृष्टि, वह दृष्टि नहीं है। उसे ज्ञान के अनुसार दृष्टि हो जाती है, जितना ज्ञान है उतने परिमाण में दृष्टि होती है। जो ज्ञान 'उसे' प्राप्त हुआ है, उसके आधार पर ही 'उसकी' दृष्टि होती है और जैसी दृष्टि होती है वैसा बाहर सब तरफ़ दिखता है। 'यह हमारा दुश्मन और यह हमारा मित्र', कहेगा। अब कोई मित्र या शत्रु है ही नहीं इस जगत् में, लेकिन उसकी दृष्टि ऐसी हो गई है, इसलिए ऐसा दिखता है। प्रश्नकर्ता : जो गलत चीज़ है, वह त्याग देनी चाहिए। धीरे-धीरे इतना प्रयत्न करें तो फ़र्क पड़ता जाता है। ___दादाश्री : अगर मोक्ष में जाना हो तो गलत-सही का द्वंद्व निकाल देना पड़ेगा। और यदि शुभ में आना हो तो गलत वस्तु पर द्वेष करो, तिरस्कार करो और अच्छी वस्तु पर राग करो, जब कि शुद्ध में सही-गलत दोनों पर राग- द्वेष नहीं रखना है। क्योंकि वस्तु अच्छी-बुरी है ही नहीं, यह तो दृष्टि की मलिनता है। यह अच्छी दिखती है और यह ख़राब दिखती है, वही दृष्टि की मलिनता है और वही मिथ्यात्व है। यानी कि दृष्टिविष खत्म हो जाना चाहिए। वह दृष्टिविष हम निकाल देते हैं। वह दृष्टिविष चला जाए, फिर आत्मा का लक्ष्य प्राप्त किया जा सकता है, वर्ना आत्मा का लक्ष्य प्राप्त करना क्या कोई ऐसी-वैसी बात है! और वीतरागता आनी

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