Book Title: Anuttaropapatikdasha Sutra
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 50
________________ तृतीय वर्ग - प्रथम अध्ययन - धन्यकुमार का अभिग्रह ****************************** ********************************** विहरित्तए, छट्ठस्स वि य णं पारणयंसि कप्पइ आयंबिलं पडिग्गहित्तए णो चेव णं अणायंबिलं, तं पि य संसटुं णो चेव णं असंसटुं, तं पि य णं उज्झियधम्मियं, णो चेव णं अणुज्झियधम्मियं, तं पि य जं अण्णे बहवे समणमाहणअतिहिकिवणवणीमगा णावकंखंति। अहासुहं देवाणुप्पिया! मा पडिबंधं करेह। कठिन शब्दार्थ - इच्छामि - मैं चाहता हूं, अब्भणुण्णाए समाणे - आज्ञा प्राप्त हो जाने पर, जावज्जीवाए - जीवन पर्यंत, छटुं छठेणं - षष्ठ-षष्ठ (बेले-बेले) तप से, अणिक्खित्तेणं - अनिक्षिप्त (निरंतर), आयंबिल परिग्गहिएणं - आयंबिल (आचाम्ल) ग्रहण रूप, तवोकम्मेणं - तपः कर्म से, अप्पाणं - अपनी आत्मा की, भावेमाणे - भावना करते हुए, विहरित्तए - विचरूँ, पारणयंसि - पारणा करने में, कप्पइ - योग्य है, पडिग्गहित्तए - ग्रहण करना, अणायंबिलं - अनाचाम्ल ग्रहण करना, संसटुं - संसृष्ट (खरड़े) हाथों से, असंसर्ट - असंसृष्ट हाथों से, उज्झियधम्मियं - उज्झित-धर्म वाला, अणुज्झियधम्मियं - अनुज्झित (अपरित्याग) रूप धर्म वाला, समण - श्रमण, माहण - ब्राह्मण, अतिहि - अतिथि, किवण - कृपण-दरिद्र, वणीमग - वनीपक-याचक, णावकंक्खंति - नहीं चाहते हों, अहासुहं - यथासुख-जैसा सुख हो, देवाणुप्पिया - हे देवानुप्रिय! मा - मत, पडिबंधं - प्रतिबन्ध-विलंब, करेह - करो। ___भावार्थ - हे भगवन्! आपकी आज्ञा प्राप्त हो तो मैं जीवन पर्यंत षष्ठ-षष्ठ (बेले-बेले) तप और पारणा आयम्बिल तप युक्त करके अपनी आत्मा को भावित करता हुआ विचरना ' चाहता हूं। बेले के पारणे में आयम्बिल ग्रहण करना कल्पता है परन्तु अनाचाम्ल-आयम्बिल बिना की कोई चीज लेना नहीं कल्पता है। वह आयम्बिल का आहार भी संसृष्ट (देय वस्तु लिप्त हुए हाथ, बरतन आदि द्वारा दी जाती) हो तो ही लेना कल्पता है, असंसृष्ट लेना नहीं कल्पता है वह संसृष्ट भी उज्झित धर्म वाली (जिसे सामान्य जन फेंकने योग्य मानते हैं) हो, लेना कल्पता है, उज्झित धर्मवाली न हो तो लेना नहीं कल्पता है। वह उज्झित वस्तु भी ऐसी हो जिसे दूसरे बहुत से श्रमण, ब्राह्मण, अतिथि, दरिद्र, याचक (भिक्षाचर) आदि भी नहीं चाहते हों तो ही लेना कल्पता है। इस प्रकार के तप करने की आप मुझे आज्ञा फरमाइये तब श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने कहा - 'हे देवानुप्रिय! जिस प्रकार तुम्हें सुख हो, वैसा करो। धर्म कार्य में विलम्ब मत करो।' Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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