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रहेगा जहाँ तक हमारा लक्ष्य साध्य पर लगा रहेगा । यदि हमारी दृष्टि साध्य पर से अर्थात् 'निश्चय' पर से हट जाय तो हमारे साधनो मे विकृति प्राये विना नही रहती ।
निश्चय दृष्टि का विषय एक विराट समझ की अपेक्षा रखता है । जैन दार्शनिको ने इसकी अद्भुत छानवीन की है । यदि यह बात पूर्णतया समझ ली जाय तो व्यवहार मार्ग भी अपने आप निश्चित हो जाय । इस प्रकार निश्चित हुग्रा व्यबहार मार्ग निस्सदेह उत्कर्षमार्ग वन जाय ।
धर्म और तत्त्वज्ञान विषयक प्रकरण में हमने देखा है कि तत्त्वज्ञान हमे सुविचार देता है और धर्म हमे सदाचार सिखाता है। यह सुविचार ही 'निश्चय दृष्टि' है, और सदाचार 'व्यवहार दृष्टि' है। सद्विचार और सदाचार--- ये दोनो परस्पर सम्वद्ध है, और उनका समान महत्त्व है, यह भी हमने समझ लिया है ।
इसी प्रकार निश्चय और व्यवहार भी परस्पर सम्वद्ध है । निश्चय को छोड़कर सद्व्यवहार नही हो सकता और सद्व्यवहार को छोड कर निश्चय से चिपके रहना सभव नही । श्रध्यात्मशास्त्र हमे हमारा अतिम ध्येय बताता है । अपनी दृष्टि इस प्रतिम ध्येय पर स्थिर रख कर वहाँ पहुँचने के लिए हम जो वर्ताव-याचरण करते है वही सच्ची व्यवहारदृष्टि है ।
यह बात तो अव हम ग्रच्छी तरह समझ गये है कि निश्चय दृष्टि क्या है । श्रव व्यवहार के विषय मे कुछ विचार करना आवश्यक है, क्योकि निश्चय को समझकर उसे धारण करना एक बात है जव कि व्यवहार से उससे चिपके रहना दूसरी वात है । किसी वस्तु को मान लेने मे कोई कठिनाई