Book Title: Anekant aur Syadwad
Author(s): Udaychandra
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 30
________________ २८ : अनेकान्त और स्याद्वाद अवक्तव्य है। इसलिए घटको अवक्तव्य शब्दका वाच्य होनेमें कोई विरोध नहीं आता है। घटमें पहले स्वरूपादिचतुष्टयकी अपेक्षा होनेसे और इसके बाद ही स्वरूपादिचतुष्टय और पररूपादिचतुष्टय की युगपत् अपेक्षा होनेसे घट स्यादस्ति अवक्तव्य होता है। पहले पररूपादिचतुष्टयकी अपेक्षा होनेसे और इसके बाद ही स्वरूपादिचतुष्टय और पररूपादिचतुष्टयकी युगपत् अपेक्षा होनेसे घट स्यान्नास्ति अवक्तव्य होता है। पहले क्रमशः स्वरूपादिचतुष्टय और पररूपादिचतुष्टयको पृथक्-पृथक् अपेक्षा होनेसे और इसके बाद ही दोनोंकी युगपत् अपेक्षा होनेसे घट स्यादस्ति नास्ति अवक्तव्य होता है। उक्त प्रकारसे नास्तित्व धर्म सापेक्ष अस्तित्वधर्मकी अपेक्षासे सप्तभंगी बनती है। इसीप्रकार एकत्व-अनेकत्व, नित्यत्वअनित्यत्व, भिन्नत्व-अभिन्नत्व आदि युगल धर्मोंकी अपेक्षासे भी सप्तभंगी बना लेना चाहिए। . उक्त सात भंगोंमें पहला, दूसरा और चौथा ये तीन मूल भंग हैं और शेष चार भंग संयोगजन्य हैं। वे मूल भंगोंके संयोगसे बनते हैं। यहाँ प्रश्न हो सकता है कि भंग सात ही क्यों होते हैं ? इस प्रश्नका उत्तर दो प्रकारसे दिया जा सकता है । एक-गणितके नियमके अनुसार और दूसरे प्रश्नोंकी संख्याके अनुसार -गणितके नियमानुसार तीन भूल भंगोंके अपुनरुक्त भंग सात ही हो सकते हैं, अधिक नहीं । मूल तीन भंग हैं-१ अस्ति, २ नास्ति और ३ अवक्तव्य । इनके द्विसंयोगी तीन-४ अस्ति-नास्ति, ५ अस्ति-अवक्तव्य, और ६ नास्ति-अवक्तव्य और त्रिसंयोगी एक-७ अस्ति-नास्ति-अवक्तव्य भंग हैं। __ प्रश्नोंकी संख्याके अनुसार सात भंगोंके नियमका उत्तर इस प्रकार है। चूंकि प्रश्नकर्ता प्रश्न ही सात करता है ? सात प्रश्न करनेका कारण उसकी सात प्रकारको जिज्ञासाएँ हैं । सात प्रकारकी Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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