Book Title: Anand Pravachan Part 11
Author(s): Anand Rushi, Shreechand Surana
Publisher: Ratna Jain Pustakalaya

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Page 15
________________ ( १४ ) ६८. बोधिलाभ से बढ़कर कोई लाभ नहीं -२ १३६-१५४ व्यवहार सम्यग्दृष्टि का लाभ भी दुर्लभ १३६, सम्यक्त्व प्राप्त व्यक्ति की दृढ़ता-चम्पकमाला का दृष्टान्त १४०, सम्यक्त्व के ८ अंग १४६, सद्बोधिलाभ दुर्लभः क्यों और कैसे ? १४८, सम्यक्त्व से आत्म जागृति १५०, अनाथ लड़के का दृष्टान्त १५० । ६६. परस्त्री-सेवन सर्वथा त्याज्य १५५-१७० पर-स्त्री सेवन की व्याख्या १५५, पर-स्त्री कौन १५५, आठ प्रकार के मैथुन १५६, पाप-दृष्टि से पर-स्त्री प्रेक्षण का कुफल-मणिरथ का दृष्टान्त १५८, यह भी पर-स्त्री सेवन ही है १६१, पर-स्त्री सेवन क्यों त्याज्य ? क्यों निषिद्ध ? १६२, पर-स्त्री सेवन पापरूप है १६२, पर-स्त्री सेवन अधर्म है १६३, पर-स्त्री-सेवन अपराध है १६४, पर-स्त्री सेवनः नैतिक पतन १६५, पर-स्त्री सेवन पारिवारिक अशांति का कारण १६५, पर-स्त्री सेवनः स्वास्थ्य का शत्रु १६५, पर-स्त्री सेवनः स्वस्त्री सेवन से अधिक भयंकर १६७, दासी और धर्मपत्नी सेवन के समय परिणामों में अन्तर १६७ । ७०. अविद्यावान पुरुष : सदा असेव्य १७१-१८७ अविद्यावानः कौन और कैसा ? १७१, विद्या क्या है ? १७१, वैदिक तथा जैन परंपरानुसार १४ विद्याओं के नाम १७३, अविद्या क्या है ? १५४, २७ प्रकार के अविद्यावान व्यक्ति १७४, अविद्या के कारण दु:ख-प्राप्ति-पटटाचारा का दृष्टान्त १७५, अविद्या की दुनियाः भूलभुलैया भरी १७८, विद्यावान और अविद्यावान की परख: आचार्य द्रु मत उपकौशल का दृष्टान्त १७६, विद्यावान् सांसारिक सुख-दुख मे तटस्थ-बुद्धिमती सुमति का दृष्टान्त १८१, विद्यावान और अविद्यावान में सूक्ष्म अन्तर, १८३, विद्यावान वह, जो गीतार्थ हो १८५, अविद्यावान की सेवा में न रहें १८५ । ७१. अतिमानी और अतिहीन असेव्य १८८-२०८ न अतिमानी अच्छा, न अतिहीन अच्छा १८८, अतिमानीः आसुरी शक्ति का पुजारी १६१, अतिमानी से सद्गुणों का पलायन १६२, अहंकारी नवल का दृष्टान्त १६४, अहंकार क्यों, किस बात का ? १६७, अहंकार ध्वंसात्मक रूप में १६८, नेपोलियन दृष्टान्त १६६, गर्वः अनेक रूपों में २००, हीनता का अतिरेकः विकास का अवरोध २०२, होनता की भावनाः क्यों और कैसे २०३, हीनता-प्रका Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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