Book Title: Agarchand Nahta Abhinandan Granth Part 2
Author(s): Dashrath Sharma
Publisher: Agarchand Nahta Abhinandan Granth Prakashan Samiti

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Page 340
________________ लक्ष्म चिह्नमेव लक्ष्मणं तत् अधिपाति स्वसंगेन घारयतीति लक्ष्मणाधिपः अलिमुक्तेः अले: सुरायाः मुक्तेस्त्यागात् दानकार्यसारः दानकार्यमुपदेशनमेव सारो यस्य स अभात् ।। किन्तु यह सप्तसन्धानका एक पक्ष है । इसके कुछ अंश ऐसे भी हैं जो इस भाषायी जादूगरीसे सर्वथा मुक्त हैं। माताओंकी गर्भावस्था, दोहद, कुमारजन्म तथा गणधरोंके वर्णनकी भाषा प्राञ्जलता, लालित्य तथा माधुर्यसे ओतप्रोत है । दिक्कुमारियोंके कार्यकलापोंका निरूपण अतीव सरल भाषामें हुआ है। काश्चिद् भुवः शोधनमादधाना जलानि पुर्यां ववृषुः सपुष्पम् । छत्रं दधुः काश्चन चामरेण तं बीजयन्ति स्म शुचिस्मितास्याः ॥ २/२१ नवें सर्गकी सरलता तो वेदना-निग्रह रसका काम देती है। काव्यके पूर्वोक्त भागसे जूझनेके पश्चात् नवे सर्गकी सरल-सुबोध कविताको पढ़कर पाठकके मस्तिष्ककी तनी हुई नसोंको समुचित विश्राम मिलता है। सुवर्णवर्णं गजराजगामिनं प्रलम्बबाहुं सुविशाललोचनम् ।। नरामरेन्द्रः स्तुतपादपंकजं नमामि भक्त्या वृषभं जिनोत्तमम् ।। ९/३० प्रकृति-चित्रण तत्कालीन महाकाव्य-परम्पराके अनुसार मेघविजयने काव्यमें प्राकृतिक सौन्दर्यका चित्रण किया है । तृतीय सर्गमें सुमेरुका तथा सप्तम सामें छह परम्परागत ऋतुओंका वर्णन हुआ है। किन्तु यह प्रकृतिवर्णन कविके प्रकृति प्रेमका द्योतक नहीं है। सप्तसन्धान जैसे चित्रकाव्यमें इसका एकमात्र उद्देश्य महाकाव्य रूढ़ियोंकी खानापूर्ति करना है। ह्रासकालीन कवियोंकी भाँति मेघविजयने प्रकृतिवर्णनमें अपने भावदारिद्रय को छिपाने के लिए चित्रशैलीका आश्रय लिया है । श्लेष तथा यमककी भित्तिपर आधारित कविका प्रकृतिवर्णन एकदम नीरस तथा कृत्रिम है। उसमें न मार्मिकता है, न सरसता। वह प्रौढोक्ति तथा श्लेष एवं यमककी उछल-कूद तक ही सीमित है । वास्तविकता तो यह है कि श्लेष तथा यमककी दुर्दमनीय सनकने कविकी प्रतिभाके पंख काट दिये हैं। इसलिए प्रकृतिवर्णनमें वह केवल छटपटाकर रह जाती है। . मेघविजयने अधिकतर प्रकृतिके स्वाभाविक पक्षको चित्रित करनेकी चेष्टा की है, किन्तु वह चित्रकाव्यके पाशसे मुक्त होने में असमर्थ है। अतः उसकी प्रकृति श्लेष और यमकके चकव्यूहमें फंसकर अदृश्यसी हो गयी है। वर्षाकालमें नद-नदियोंकी गर्जनाकी तुलना हाथियों तथा सेनाकी गर्जना भले ही न कर सके, यमककी विकराल दहाड़के समक्ष वह स्वयं मन्द पड़ जाती है। न दानवानां न महावहानां नदा नवानां न महावहानाम् । न दानवानां न महावहानां न दानवानां न महावहानाम् ।। ७/२२ शीतके समाप्त हो जानेसे वसन्तमें यातायातको बाधाएँ दूर हो जाती हैं, प्रकृतिपर नवयौवन छा जाता है, किन्तु इस रंगीली ऋतुमें जातीपुष्प कहीं दिखाई नहीं देता। प्रस्तुत पद्य में कविने वसन्तके इन उपकरणोंका अंकन किया है, पर वह श्लेषकी परतोंमें इस प्रकार दब गया है कि सहृदय पाठक उसे खोजताखोजता झंझला उठता है। फिर भी उसके हाथ कुछ नहीं आता। दुःशासनस्य पुरशासनजन्मनैव संप्रापितोऽध्वनियमो विघटोत्कटत्वात् । अन्येऽभिमन्युजयिनो गुरुगौरवार्हास् ते कौरवा अपि कृता हृतचौरवाचः ॥ ७/१२ सप्तसन्धानमें कहीं-कहीं प्रकृतिके उद्दीपन पक्षका भी चित्रण हुआ है। प्रस्तुत पद्यमें मेरुपर्वतको प्राकृतिक सम्पदा तथा देवांगनाओंके सुमधुर गीतोंसे कामोद्रेक करते हुए चित्रित किया गया है। विविध : ३०३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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