Book Title: Agam Sutra Hindi Anuvad Part 12
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Agam Aradhana Kendra

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Page 143
________________ १४२ आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद अनेक भेद हैं । सूक्ष्म वायुकाय के जीव एक प्रकार के हैं, उनके भेद नहीं हैं । [१५८४-१५८८] सूक्ष्म वायुकाय के जीव सम्पूर्ण लोक में और बादर वायुकाय के जीव लोक के एक भाग में व्याप्त हैं । इस निरूपण के बाद चार प्रकार से वायुकायिक जीवों के काल-विभाग का कथन करूँगा । वे प्रवाह की अपेक्षा से अनादि अनन्त हैं और स्थिति की अपेक्षा से आदि सान्त हैं । उनकी आयु-स्थिति उत्कृष्ट तीन हजार वर्ष की है और जघन्य अन्तर्मुहर्त की । उनकी कायस्थिति उत्कृष्ट असंख्यातकाल की है और जघन्य अन्तर्मुहूर्त की है । वायु के शरीर को छोड़कर निरन्तर वायु के शरीर में ही पैदा होना, कायस्थिति है । वायु के शरीर को छोड़कर पुनः वायु के शरीर में उत्पन्न होने में जो अन्तर है, वह जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अनन्त काल का है । [१५८९] वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श और संस्थान की अपेक्षा से वायुकाय के हजारों भेद होते हैं । [१५९०] उदार त्रसों के चार भेद हैं-द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय । [१५९१-१५९४] द्वीन्द्रिय जीव के दो भेद हैं-पर्याप्त और अपर्याप्त । उनके भेदों को मुझ से सुनो । कृमि, सौमंगल, अलस, मातृवाहक, वासीमुख, सीप, शंक, शंखनक-पल्लोय, अणुल्लक, वराटक, जौक, जालक और चन्दनिया-इत्यादि अनेक प्रकार के द्वीन्द्रिय जीव हैं । वे लोक के एक भाग में व्याप्त हैं, सम्पूर्ण लोक में नहीं । [१५९५-१५९८] प्रवाह की अपेक्षा से वे अनादि अनन्त हैं और स्थिति की अपेक्षा वे सादि सान्त हैं । उनकी आयु-स्थिति उत्कृष्ट बारह वर्ष की और जघन्य स्थिति अन्तर्मुहर्त की है । उनकी काय-स्थिति उत्कृष्ट संख्यात काल की और जघन्य अन्तर्मुहूर्त की है । द्वीन्द्रिय के शरीर को न छोड़कर निरंतर द्वीन्द्रिय शरीर में ही पैदा होना, कायस्थिति है । द्वीन्द्रिय के शरीर को छोड़कर पुनः द्वीन्द्रिय शरीर में उत्पन्न होने में जो अंतर है, वह जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अनन्तकाल का है । [१५९९] वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श और संस्थान की अपेक्षा से उनके हजारों भेद होते हैं । [१६००-१६०३] त्रीन्द्रिय जीवों के दो भेद हैं-पर्याप्त और अपर्याप्त । उनके भेदों को मुझ से सुनो । कुंथु, चींटी, खटमल, मकड़ी, दीमक, तृणाहारक, घुम, मालुक, पत्राहारकमिंजक, तिन्दुक, त्रपुषमिंजक, शतावरी, कान-खजूरा, इन्द्रकायिक इन्द्रगोपक इत्यादि त्रीन्द्रिय जीव अनेक प्रकार के हैं । वे लोक के एक भाग में व्याप्त हैं, सम्पूर्ण लोक में नहीं । [१६०४-१६०७] प्रवाह की अपेक्षा से वे अनादि अनंत हैं और स्थिति की अपेक्षा से सादि सान्त हैं । उनकी आयु-स्थिति उत्कृष्ट उन पचास दिनों की और जघन्य अन्तर्मुहूर्त की है । उनकी काय-स्थिति उत्कृष्ट संख्यात काल की और जघन्य अन्तर्मुहूर्त की है । त्रीन्द्रिय शरीर को न छोड़कर, निरंतर त्रीन्द्रिय शरीर में ही पैदा होना कायस्थिति है । त्रीन्द्रिय शरीर को छोड़कर पुनः त्रीन्द्रिय के शरीर में उत्पन्न होने में अन्तर जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अनन्तकाल का है । [१६०८] वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श और संस्थान की अपेक्षा से उनके हजारों भेद हैं । [१६०९-१६१३] चतुरिन्द्रिय जीव के दो भेद हैं-पर्याप्त और अपर्याप्त । उनके भेद

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