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भक्तपरिज्ञा-१४०
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तीन गुप्ति द्वारा पाँच महाव्रत की रक्षा करते हुए मोक्ष सुख की साधना करता है ।।
[१४१] इन्द्रिय के विषय में आसक्त जीव सुशील गुणरूप पीछे बिना और छेदन हुए पंखवाले पंछी की तरह संसार सागर में गिरता है ।
[१४२] जिस तरह श्वान (कुत्ता) सूख गई हड्डीओं को चबाने के बावजूद भी उसका रस नहीं पाता और (अपने) तलवे से रस को शोषता है, फिर भी उसे चाटते हुए सुख का अनुभव होता हुआ मानता है ।
[१४३] वैसे ही स्त्रीयों के संग का सेवन करनेवाला पुरुष सुख नहीं पाता, फिर भी अपने शरीर के परिश्रम को सुख मानता है ।
[१४४] अच्छी तरह से खोजने के बावजूद भी जैसे केल के गर्भ में किसी जगह में सार नही है, उसी तरह इन्द्रिय के विषय में काफी खोजने के बावजूद भी सुख नहीं मिलता।
[१४५] श्रोत्र इन्द्रिय द्वारा परदेश गए हुए सार्थवाह की स्त्री, चक्षु के राग द्वारा मथुरा का वणिक, घ्राण द्वारा राजपुत्र और जीहा के रस से सोदास राजा का वध हुआ ।
[१४६] स्पर्श इन्द्रिय द्वारा दुष्ट सोमालिका के राजा का नाश हुआ; एकैक विषय से यदि वो नष्ट हए तो पाँच इन्द्रिय में आसक्त हो उसका क्या होगा ?
[१४७] विषय की अपेक्षा करनेवाला जीव दुस्तर भव समुद्र में गिरता है, और विषय से निरपेक्ष हो वो भव सागर को पार कर जाता है । रत्नद्वीपकी देवी को मिले हुए (जिनपालित और जिनरक्षित नाम के) दो भाईओं का दृष्टान्त प्रसिद्ध है ।
[१४८] राग की अपेक्षा रखनेवाले जीव ठग चूके है, और राग की अपेक्षा रहित जीव बिना किसी विघ्न के (इच्छित) पा चूके है, प्रवचन का सार प्राप्त किये हुए जीव को राग की अपेक्षा रहित होना चाहिए ।
[१४९] विषय में आसक्ति रखनेवाले जीव घोर संसार सागर में गिरते है, और विषय में आसक्ति न रखनेवाले जीव संसार रूपी अटवी को पार कर जाते है ।
[१५०] इसलिए हे धीर पुरुष ! धीरजसमान बल द्वारा दुर्दान्त (दुःख से दमन वैसे) इन्द्रिय रूप सिंह को दम; ऐसा करके अंतरंग बैरी समान और द्वेष का जय करनेवाला तू आराधना पताका का स्वीकार कर ।
[१५१] क्रोधादिक के विपाक को जानकर और उसके निग्रह से होनेवाले गुण को जानकर हे सुपुरुप ! तु प्रयत्न द्वारा कषाय समान क्लेश का निग्रह कर ।।
[१५२] जो तीन जगत के लिए अति तीव्र दुःख है और जो उत्तम सुख है वे सर्व क्रमानुसार कषाय की वृद्धि और क्षय की वजह जानना ।
[१५३] क्रोध द्वारा नंद आदि और मान द्वारा परशुराम आदि माया द्वारा पंडरजा (पांडु आर्या) और लोभ द्वारा लोहनन्दादिने दुःख पाए है ।
[१५४] इस तरह के उपदेश समान अमृत पान द्वारा भीगे हुए चित्त के लिए, जिस तरह प्यासा पुरुष पानी पीकर शान्त होता है वैसे वो शिष्य अतिशय स्वस्थ होकर कहता है
[१५५] हे भगवान् ! मैं भव रूपी कीचड़ को पार करने को दृढ़ लकड़ी समान आपकी हितशिक्षा की इच्छा रखता हूँ, आपने जो जैसे कहा है मैं वैसे करता हूँ । ऐसे विनय से