Book Title: Agam 08 Ang 08 Antkrutdashang Sutra Sthanakvasi
Author(s): Amarmuni, Shreechand Surana, Rajkumar Jain, Purushottamsingh Sardar
Publisher: Padma Prakashan
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अध्याय १
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अन्तकृद्दशा सूत्र : अन्तर्-बाह्य परिचय
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मानवीय आकांक्षा ___ अनादिकाल से मानव की एक ही अदृश्य इच्छा रही है, वह है सुख-प्राप्ति की, दुःखों का अन्त करने की। यद्यपि यह इच्छा प्राणी मात्र में है, जैसा कि भगवान महावीर ने कहा है-“सव्ये जीवा, सव्ये सत्ता, सव्वे पाणा, सब्वे भूया, सुह साया, दुक्खा पडिकूला.. ___-संसार के सभी प्राणी सुख के अभिलाषी हैं, दुःख सभी को प्रतिकूल है, दुःख से बचना चाहते हैं और सुख पाना चाहते हैं।
मानव संसार का एक ऐसा समर्थ प्राणी है जो अपनी कुशल मेधा-शक्ति, उन्नत बल-वीर्य पराक्रम के अनुसार दुःखों का अन्त करने और सुख-प्राप्ति की दिशा में अग्रसर हो सकता है। ___ मानव की सभी प्रवृत्तियाँ दुःखों का अन्त करने की दिशा में अग्रसर हुई हैं। सुख-प्राप्ति के लिए ही उसने भौतिक और वैज्ञानिक उन्नति की। महल, बाग-बगीचे, स्कूटर, मोटर, वायुयान, स्पूतनिक, टी. वी. आदि का आविष्कार किया।
जीवन को उन्नतिशील बनाने के लिए उसने अनेक शास्त्रों की रचना की अर्थशास्त्र, समाजशास्त्र, नीतिशास्त्र, धर्मशास्त्र आदि। इनमें भी सुख-प्राप्ति के नियम और साधन ही निर्धारित किये।
'मुण्डे-मुण्डे मतिर्भिन्ना' के अनुसार कुछ लोग भौतिक साधनों में सुख की खोज करते हुए भौतिकवादी बन गये तो कुछ ने स्वयं अपने अन्दर ही सुख की गवेषणा की और आत्मानुभव (self-realisation) में प्रवृत्त होकर आध्यात्मिकता की ओर मुड़ गये। ___ अति प्राचीनकाल-प्रागैतिहासिककाल से ही भारत आध्यात्मिकता-प्रधान रहा है। धर्म तथा आध्यात्मिकता की आदि (beginning) इसी पवित्र धरा पर हुई, जिसका श्रेय आदि तीर्थंकर ऋषभदेव से लेकर चरम (चौबीसवें) तीर्थंकर भगवान महावीर को है। द्वादशांगी का महत्त्व
भगवान महावीर ने प्राणी मात्र के कल्याण के लिए जो उपदेश दिये, उन उपदेशों को महान् प्रज्ञावान गणधरों ने बारह अंगों में संकलित किया। यह बारह अंग ही द्वादशांगी कहलाते हैं।
द्वादशांगी की विशेषता यह है कि यह सर्वज्ञ द्वारा कथित है। सर्वज्ञ भगवान अर्थ-रूप वाणी बोलते हैं, उनके प्रमुख शिष्य गणधर उसे ग्रहण करके शासन के हित के लिए (प्राणी मात्र के कल्याण के लिए) निपुणतापूर्वक सूत्रों की रचना करते हैं।
अन्तकृदशा महिमा
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