Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 02 Sthanakvasi
Author(s): Sudharmaswami, Hemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
Publisher: Atmagyan Pith
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सूत्रकृतांग सूत्र
व्याख्या
अप्रत्याख्यानी आत्मा के प्रकार
इस सूत्र में शास्त्रकार ने अप्रत्याख्यानी आत्मा के विविध प्रकारों का निरूपण किया है । श्रीसुधर्मास्वामी ने जम्बूस्वामी आदि शिष्यों को अप्रत्याख्यानी आत्मा के सम्बन्ध में भगवान् महावीर का दृष्टिकोण बताया था, उसी को शास्त्रकार ने यहाँ अंकित किया है।
यहाँ मूल पाठ में 'जीव' के बदले 'आत्मा' शब्द का प्रयोग किया गया है, उसका आशय यह है कि यह जीव सदा से ही नानाविध योनियों में भ्रमण करता चला आ रहा है, जो एक भव से दूसरे भव में लगातार भ्रमण करता रहता है, उसे आत्मा कहते हैं, क्योंकि आत्मा शब्द की व्युत्पत्ति इस प्रकार है-'अतति सततं गच्छतीति आत्मा'-जो विभिन्न गतियों में सतत गमन करता है वह आत्मा है । इस जीव के साथ अनादिकाल से मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योगों का सम्बन्ध लगा हुआ है, इसलिए यह अनादिकाल से अप्रत्याख्यानी रहता चला आ रहा है। यद्यपि कर्मों के क्षयोपशम से बाद में वह प्रत्याख्यानी भी हो जाता है। इसी भाव को प्रदर्शित करने के लिए यहाँ 'अवि' (अपि) शब्द का प्रयोग किया गया है।
__यहाँ 'जीव' के बदले 'आत्मा' शब्द का प्रयोग करने के पीछे एक अभिप्राय सांख्यदर्शन और बौद्धदर्शन के आत्मा-सम्बन्धी मत का निराकरण करना भी है। सांख्यदर्शन आत्मा को उत्पत्ति-विनाश से वजित, स्थिर (कूटस्थ), एक स्वभाव वाला मानता है। किन्तु ऐसा मानने पर जीव (आत्मा) का अनेक योनियों में जाना सम्भव नहीं है, तथा यह आत्मा स्थिर माना जाये तो वह एक तिनके को भी मोड़ नहीं सकता, तब वह प्रत्याख्यान कैसे कर सकता है ? बल्कि वह सदा अप्रत्याख्यानी ही बना रहेगा। सांख्यदर्शन की यह मान्यता युक्तिसंगत नहीं है, इसे सूचित करने के लिए आत्मा शब्द का प्रयोग किया हुआ है।
बौद्धदर्शनसम्मत आत्मा में प्रत्याख्यान सम्भव नहीं है, क्योंकि वह आत्मा को एकान्त क्षणिक मानते हैं। अत: बौद्ध मतानुसार स्थितिहीन होने से आत्मा का प्रत्याख्यानी होना सम्भव नहीं है ।
___ शुभ अनुष्ठान को क्रिया कहते हैं। क्रिया में कुशल को क्रियाकुशल कहते हैं, एवं जो शुभक्रिया में कुशल नहीं है, वह अक्रियाकुशल है। आत्मा को यहाँ अक्रियाकुशल इसलिए कहा गया है कि आत्मा अनादिकाल से अप्रत्याख्यानी और शुभक्रिया करने में अकुशल रहता चला आ रहा है। बाद में कदाचित् पुण्य प्रबल हो तो प्रत्याख्यानी और क्रियाकुशल भी हो जाता है ।
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