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प्रथम पर्व
आदिनाथ चरित्र
संसार–सम्बन्धी समस्त व्यापार त्यागना, ब्रह्मचर्य पालना और दूसरी स्नानादिक क्रियाओं का त्याग करना - पौषध व्रत कहलाता है। अतिथि-मुनि को चार प्रकार का आहार, पात्र, कपड़ा, स्थान या उपाश्रय का दान करना, – अतिथिसंविभाग नामक व्रत कहलाता है । मोक्ष की प्राप्ति के लिये मुनियों और श्रावकों को अच्छी तरह से इन तीन रत्नों की उपासना सदा करनी चाहिये
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प्रभु द्वारा की गई चतुर्विध संघकी स्थापना ।
गणधरों की स्थापना |
इस प्रकार देशना - उपदेश सुनकर भरतके पुत्र ऋषभसेन ने प्रभुको नमस्कार कर इस प्रकार कहना आरम्भ किया - " हे स्वामी ! कषाय रूपी दावानल से दारुण इस संसार रूपी अरण्य में, आपने नवीन मेघ की तरह अद्वितीय तत्वामृत की वर्षाकी है। हे जगदीश ! जिस तरह डूबते हुए को नाव मिलजाती है, प्यासों को पानी की प्याउ मिल जाती है, शीत पीडितों के लिये आग मिल जाती है। 1 धूप से तपे हुओं के लिये छाया मिल जाती है, अँधेरे में डूबे हुएको प्रकाश या रोशनी मिल जाती है, दरिद्री को ख़ज़ाना मिलजाता है, विष पीड़ितों को अमृत मिल जाता है, रोगी को दवा मिल जाती है, शत्रुसे आक्रान्त लोगों के लिये क़िलेका आश्रय मिल जाता है; उसी तरह संसार से भीत हुओंके लिये आप मिल गये हैं, इसलिये हे दयानिधि !