Book Title: Adhyatmik Daskaran
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 34
________________ दशकरण चर्चा आगमाश्रित चर्चात्मक प्रश्नोत्तर (उदयकरण) अ. ३ ९."यहाँ प्रश्न है कि तुमने कहा सो सत्य: परन्तु द्रव्यकर्म के उदय एकेन्द्रियादिक तो धर्मकार्य करने में समर्थ ही नहीं हैं, कैसे पुरुषार्थ से भावकर्म होता है, भावकर्म से द्रव्यकर्म का बन्ध होता है, तथा फिर करें? और तीव्रकषायी पुरुषार्थ करे तो वह पाप ही का करे, धर्मकार्य उसके उदय से भावकर्म होता है - इसी प्रकार अनादि से परम्परा है, का पुरुषार्थ हो नहीं सकता। तब मोक्ष का उपाय कैसे हो? ___ इसलिये जो विचारशक्ति सहित हो और जिसके रागादिक मन्द हों समाधान :- कर्म का बन्ध व उदय सदाकाल समान ही होता रहे तब तो ऐसा ही है; परन्तु परिणामों के निमित्त से पूर्वबद्धकर्म के भी - वह जीव पुरुषार्थ से उपदेशादिक के निमित्त से तत्त्वनिर्णयादि में उत्कर्षण-अपकर्षण-संक्रमणादि होने से उनकी शक्ति हीनाधिक होती उपयोग लगाये तो उसका उपयोग वहाँ लगे और तब उसका भला हो। है; इसलिये उनका उदय भी मन्द-तीव्र होता है। उनके निमित्त से नवीन यदि इस अवसर में भी तत्त्वनिर्णय करने का पुरुषार्थ न करे, बन्ध भी मन्द-तीव्र होता है। प्रमाद से काल गँवाये - या तो मन्दरागादि सहित विषयकषायों के इसलिये संसारी जीवों को कर्मोदय के निमित्त से कभी ज्ञानादिक कार्यों में ही प्रवर्ते, या व्यवहारधर्म कार्यों में प्रवर्ते; तब अवसर तो चला बहत प्रगट होते हैं, कभी थोड़े प्रगट होते हैं: कभी रागादिक मन्द होते जायेगा और संसार में ही भ्रमण होगा। हैं, कभी तीव्र होते हैं। इसप्रकार परिवर्तन होता रहता है। तथा इस अवसर में जो जीव पुरुषार्थ से तत्त्वनिर्णय करने में उपयोग वहाँ कदाचित् संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त पर्याय प्राप्त की, तब मन द्वारा लगाने का अभ्यास रखें, उनके विशुद्धता बढ़ेगी; उससे कर्मों की शक्ति विचार करने की शक्ति हुई। तथा इसके कभी तीव्र रागादिक होते हैं, हीन होगी, कुछ काल में अपने आप दर्शनमोह का उपशम होगा; तब कभी मन्द होते हैं। वहाँ रागादिक का तीव्र उदय होने से विषयकषायादिक तत्त्वों की यथावत् प्रतीति आयेगी। के कार्यों में ही प्रवृत्ति होती है। तथा रागादि का मन्द उदय होने से बाह्य सो इसका तो कर्त्तव्य तत्त्वनिर्णय का अभ्यास ही है, इसी से दर्शनमोह उपदेशादिक का निमित्त बने और स्वयं पुरुषार्थ करके उन उपदेशादिक का उपशम तो स्वयमेव होता है; उसमें जीव का कर्तव्य कुछ नहीं है।" में उपयोग को लगाये तो धर्मकार्यों में प्रवृत्ति हो; और निमित्त न बने व भावदीपिका शास्त्र में उदयकरण का एक छोटा-सा यह प्रकरण स्वयं पुरुषार्थ न करे तो अन्य कार्यों में ही प्रवर्ते, परन्तु मन्द रागादिसहित है। उस छोटे से प्रकरण को आप सूक्ष्मता से पढ़ोगे तो एक नया तथा प्रवर्ते। - ऐसे अवसर में उपदेश कार्यकारी है। पुरुषार्थप्रेरक विषय मिलेगा। उस विषय को हम समझने का प्रयास विचारशक्ति रहित जो एकेन्द्रियादिक हैं, उनके तो उपदेश समझने करते हैं। का ज्ञान ही नहीं है; और तीव्र रागादिसहित जीवों का उपयोग उपदेश में उदयकरण को समझाते समय ग्रंथकार चौथे अनुच्छेद में प्रदेश लगता नहीं है। इसलिये जो जीव विचारशक्ति सहित हों, तथा जिनके रागादि मन्द उदय की परिभाषा लिखते हैं - हों; उन्हें उपदेश के निमित्त से धर्म की प्राप्ति हो जाये तो उनका भला हो; 'वहाँ जीव के परिणामों का निमित्त पाकर फल देकर या बिना फल तथा इसी अवसर में पुरुषार्थ कार्यकारी है। AamjukhImandaram book दिये ही कर्म-परमाणुओं का रिवर जाना उसे प्रदेश उदय कहते हैं।' (34)

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