Book Title: Adhyatmasara
Author(s): Yashovijay, Veervijay
Publisher: Adhyatmagyan Prasarak Mandal

View full book text
Previous | Next

Page 218
________________ २१३ अर्थः-ज्ञानवतनी जे प्रेरणा छे ते तत्वज्ञाननी प्रवृत्तिने अर्थे ध्रुव छे केमके स्वमादिक जे अबुद्धिपूर्वक कार्य छे तेने विषे ए ज्ञाननी प्रेरणा कांइ देखाती नथी; ते माटे ।। १६९ ॥ तेमज प्राणी भव्यताये प्रेयों थको परिणामने अनुमारे करी पुण्य, पापने बांधतो थको प्रवर्ने छ । १७० ।। शुद्धनिश्चयतः स्वात्मा न बद्धो बंधशंकया ॥ ___ भयकंपादिकं किंतु रजावहिपतेरिव । १७१ ॥ रोगस्थित्यनुसारेण प्रवृत्ती रोगिणो यथा ॥ भवस्थित्यनुसारेण तथा बंधोऽपि वर्ण्यते॥ १७२ ॥ अर्थः-शुद्ध निश्चयनयथकी तो आत्मा अबंधक छे, पण भयकंरादिके करी बंधनी शंका रहे छे, जेम दोरडु देखी सर्पनी शंका उपजे छे तेनीपरे जाणवू ॥ १७१ ॥ रोगनी स्थितिने अनुसारे रोग छे, एटले जे दिवसे शरीर उपनु, तेज दिवसथी सर्व रोगनी स्थितिओ शरीरमां उत्पन्न थयेली छे अर्थात् शरीर केवल रोगनी स्थितिरूपन छे; पण ते रोग जेबारे रोगी कुपथ्य सेवे तेवारे प्रगट थाय छे. तेवारे रोगी पुरुष जेम रोगनी प्रवृत्ति गणे छे तेमज भवस्थितिने अनुसारे आत्माने बंध कहिये छीए ॥ १७२॥ दृढाज्ञानमयीशंका मनोमपनिनीषतः ॥ ___ अध्यात्मशास्त्रमिच्छति श्रोतुं वैराग्यकांक्षिणः॥१७३ दिशाप्रदर्शकं शाखा चंद्रन्यायेन तत्पुनः ॥ प्रत्यक्षविषयां शंकां न हि हंति परोक्षधीः ॥१७४॥ अर्थः--दृढ अज्ञानमय एहवी जे शंका तेहने टालवाने

Loading...

Page Navigation
1 ... 216 217 218 219 220 221 222 223 224 225 226 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238 239 240 241 242 243 244 245 246 247 248 249 250 251 252 253 254