Book Title: Adhyatma Chandra Bhajanmala
Author(s): Chandrakanta Deriya
Publisher: Sonabai Jain Ganjbasauda

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Page 15
________________ अध्यात्म चन्द्र भजनमाला अध्यात्म चन्द्र भजनमाला १६ भजन - २३ तर्ज-तू तो सो जा बारे वीर... चेतन काये रूलो जग बीच, चेतन काये रूलो जग बीच । जब अपने को जान लिया है, कूद पड़ो रण बीच ।। १. द्रव्य भाव नो कर्मों से, जिय तोड़ दे अपना नाता । ज्ञान की बगिया लहरायेगी, पाओगे सुख साता ।। अपने धर्म ध्यान को खींच-खींच, जब अपने.... २. निज शुद्धातम के स्वरूप को, भूल कभी न पाए। ज्ञाता दृष्टा और अमूर्ति, हमको सदा सुहाये ॥ स्वात्म की धुन लाई है खींच-खींच, जब अपने.... ३. सम्यक्दर्शन प्राप्त किया अब, आत्म ज्ञान को धारें। टंकोत्कीर्ण अप्पा ममल स्वभावी, की सत्ता को पा लें ॥ शील समता को बाँधे चीर-चीर, जब अपने.... अनन्त गुणों में अवगाहन कर, उसकी साधना करने। अध्यात्म की नगरी में अब, बारम्बार विचरने ॥ ध्यान चिन्तन होगा गम्भीर-गम्भीर, जब अपने.... भजन - २४ तर्ज-तेरे द्वार खड़ा भगवान... मेरी है यही अरदास, हे चेतन अपने में आओ । मैं निशदिन धरूँ तेरा ध्यान, हे चेतन अपने में आओ ॥ १. देख लो अपना कोई नहीं है, तन धन महल अटारी। जग रिश्ते सारे झूठे हैं, झूठी दुनियादारी ॥ इस जग को तू पहिचान, हे चेतन अपने में आओ... मेरी है यही.... २. राग द्वेष के भाव छोड़कर, बन तू आत्म पुजारी । धर्म की शरणा ले ले अब तो, हे चेतन अविकारी ॥ होगा अब भव का अवसान, हे चेतन अपने में आओ... मेरी है यही.... ३. वस्तु स्वरूप का निर्णय करके, बनें स्व-पर विज्ञानी। आत्म तत्व की करूँ साधना, होकर दृढ़ श्रद्धानी ॥ तूने धर्म लिया पहचान, हे चेतन अपने में आओ... मेरी है यही.... ४. अनन्त गुणों का अभेद पिंड है, चेतन की यह ज्योति । स्वात्म रमण करने से सारे, कर्म मलों को धोती ।। मैं पाऊँ पद निर्वाण, हे चेतन अपने में आओ... मेरी है यही.... मुक्तक धन्य है भाग मेरे, यह धन्य घड़ी । आत्म साधना को लेने में मस्त खड़ी॥ ज्ञान की घंटिया, हृदयस्थल में बजी। इसकी आवाज सुन, उल्लसित हो उठी ॥ ज्ञान ही ज्ञान का ज्ञान अरमान था । ज्ञान ही ज्ञान से ज्ञान में ध्यान था । ज्ञान की ही तरंगें उछलने लगी । ज्ञान के ध्यान में मस्त उड़ने लगी ॥ *मुक्तक तुम जहां भी रहो आत्म सुख में रहो, यही कामना है यही भावना है। तुम्हें आत्मा से ही अब लगन लगेगी, बस यही मेरी सद्भावना है ॥ सुखमयी जीवन बने तेरा निरन्तर, बस यह मेरी हार्दिक भावना है। जग में रहते हुये निज धर्मी बनो तुम, मूढ़तायें छोड़ो यही भावना है ॥

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