Book Title: Acharya Bhikshu Aakhyan Sahitya 01
Author(s): Tulsi Ganadhipati, Mahapragya Acharya, Mahashraman Acharya, Sukhlal Muni, Kirtikumar Muni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 6
________________ (iv) मूल आगम भी बड़ी दुर्लभता से प्राप्त हुए होंगे। फिर भी थोड़े से समय में आगमों का गहन अध्ययन कर उन्होंने अपनी क्षीर-नीर बुद्धि का अप्रतिम परिचय दिया है। ___ आचार्य भिक्षु एक कुशाग्र चर्चावादी भी थे। उनका अनेक उद्भट लोगों से चर्चा करने का काम पड़ा। यह सौभाग्य की बात है कि उन चर्चा-वार्ताओं को संकलित कर एक दूरदर्शिता का परिचय दिया गया। पर उन्होंने तत्त्वज्ञान को पद्यों में बांधने का जो प्रयत्न किया, वह अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। गद्य साहित्य पढ़ने में तो सरल रहता है पर उसे अविकल रूप से स्मृति में संजो पाना अत्यंत कठिन होता है। आचार्य भिक्षु ने पद्य साहित्य की रचना लोक गीतों की शैली में की, इसलिए आज भी अनेक लोग अपने अधरों पर उन गीतों को गुनगुनाते रहते हैं। गीत याद करने में भी सुगम होते हैं। इसलिए अपढ़ लोगों के लिए भी वे परम्परित बन जाते हैं। आचार्य भिक्षु का कवित्व अत्यन्त प्राञ्जल एवं रससिद्ध था। उन्होंने दार्शनिक साहित्य के साथ-साथ आख्यान साहित्य लिख कर भी अपनी लेखनी की कुशलता का परिचय दिया है। उनके आख्यानों में तत्कालीन लोक संस्कृति के सुघड़ बिम्ब उभरे हैं। मानव मन की अतल गहराइयों को छूने में वे सिद्धहस्त कवि थे। उनके कवित्व पर विस्तार से चर्चा करने के लिए एक पूरे ग्रंथ की आवश्यकता है। फिर भी यह सही है कि आज राजस्थानी भाषा भी दुर्गम होती जा रही है। आचार्य भिक्षु निर्वाण द्विशताब्दी के अवसर पर १५ अक्टूबर २००४ को सिरियारी में आचार्यश्री महाप्रज्ञजी ने मुझे फरमाया कि मैं भिक्षु वाङ्मय का हिन्दी में अनुवाद करूं। मेरे लिए उनकी आज्ञा अत्यन्त आह्लादक थी। उसे शिरोधार्य कर मैंने उसी वर्ष दीपावली के दिन शुभ मुहूर्त देखकर अपराह्न में भिक्षु वाङ्मय के अनुवाद को प्रारंभ करने के लिए मंगल पाठ सुना। मेरे साथ कुछ और भी संत थे। मैंने संतों के साथ बैठकर एक रूपरेखा बनाई। तदनुसार मैंने कुछ साधुसाध्वियों को भी इस कार्य में जोड़ा। यह निर्णय किया कि अनुवाद की अंतिम निर्णायकता मेरी रहेगी। मेरे अवलोकन के बाद अनुवाद को अंतिम रूप दिया जा सकेगा। आचार्य भिक्षु ने लगभग ३८ हजार पद्य परिमाण साहित्य लिखा है, ऐसा आकलन है। द्वितीय आचार्य भारमलजी ने अपने हाथ से उस साहित्य का लेखन किया। हमने उसे ही प्रमाणभूत माना है। उस समय राजस्थानी में एक ही शब्द

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