Book Title: Acharang Sutram Part 02
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
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________________ 282 1 - 3 - 4 - 9 (134) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन सत्तामें व्याप याने फैलकर रहा हुआ है, किंतु वस्तु स्थिति हि ऐसी है कि- जिन्हों ने जो कर्म कीये है, उनका विच्छेद भी वे हि करतें हैं, अन्य तो मात्र निमित्त स्वरूप हि उपकारक होतें हैं... हेय पदार्थ के त्याग एवं उपादेय पदार्थों का उपादान याने ग्रहण के हि उपदेश को जाननेवाले को हम सर्वज्ञ नहि कहतें... मात्र इतने हि परोपकार करने से यदि तीर्थंकर पने की उपलब्धि होती हो, तो यह बात सज्जनों के मन को आनंदित नहि करती... क्योंकियहां कोई विशेष उपकारक युक्ति-हेतु हि नहि है... यहां बात यह है कि- सम्यग् ज्ञान के बिना हित की प्राप्ति एवं अहित के परिहार याने त्याग के उपदेश का संभव हि नहि हो शकता... तथा एक पदार्थ का वास्तविक विज्ञान भी सर्वज्ञता के सिवा हो हि नहि शकता... यह बात सूत्रकार महर्षि आगे के सूत्र से कहेंगे... V सूत्रसार : तृतीय उद्देशक में संयम, आत्म चिन्तन एवं परीषहों के उपस्थित होने पर भी धैर्यता एवं सहिष्णुता बनाए रखने का उपदेश दिया है। वस्तुत: देखा जाए तो अधैर्य एवं चंचलता का कारण कषाय, राग-द्वेष एवं भय ही है। अतः प्रस्तुत उद्देशक में इनके त्याग का उपदेश दिया गया है। साधना का उद्देश्य है-कर्मों से सर्वथा मुक्त होना। इसलिए प्रत्येक तीर्थंकर भगवान अपने शासनकाल में मोक्ष मार्ग का उपदेश देते हैं। प्रस्तुत सूत्र में भगवान महावीर परमात्मा कषाय के त्याग का उपदेश देते है। वे कहते हैं कि- कषाय से कर्म का बन्ध होता है और कर्म बंध से जीव संसार में परिभ्रमण करता है। इसलिए साधक को चाहिए कि- वह संसार परिभ्रमण के हेतुभूत स्वकृत कर्म का हि भेदन करे। क्योंकि- कषाय कर्म बंधन का कारण है और जब कारण नष्ट कर देंगे तो कार्य का नाश सहज ही हो जाएगा। अतः एव कर्म का क्षय करने के लिए पहिले कषाय त्याग का उपदेश दिया गया है। प्रस्तुत सूत्र में प्रयुक्त “पासगस्स दंसणं' का अर्थ है- लोक के समस्त पदार्थो के यथार्थ द्रष्टा को पश्यक कहते हैं, ऐसे सर्वज्ञ सर्वदर्शी अन्तिम तीर्थंकर भगवान महावीर स्वामीजी हैं, 'आयाणं' शब्द से हिंसा आदि 5 आस्रव एवं 18 पाप स्थानक स्वीकार किए गए हैं। इनके द्वारा ही जीव अष्ट कर्मों को बांधता है। इसलिए इन्हें 'आयाणं-आदान' कहते हैं। वस्तु के यथार्थ स्वरूप को सर्वज्ञता या सर्वज्ञ के ज्ञान से ही जाना जा सकता है। अतः उक्त विषय में सूत्रकार महर्षि आगे का सूत्र कहते हैं...