Book Title: Acharang Sutram Part 01
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1 - 1 - 4 - 2 (33)卐 205 अपनी जीवन लीला समाप्त कर लेती है / आप देखते हैं कि यदि प्रज्वलित दीपक या अंगारों * को किसी वर्तन से ढक दिया जाए और बाहर से हवा को अंदर प्रवेश न करने दिया जाए, तो वे तुरन्त बुझ जाएंगे / किसी व्यक्ति के पहने हुए वस्त्र आदि में आग लगने पर डाक्टर पानी डालने के स्थान में उस शरीर को मोटे कपड़े या कम्बल से ढक देने की सलाह देते हैं / क्योंकि शरीर कम्बल से आवृत्त होते ही, आग को बाहर की वायु नहीं मिलेगी और वह तुरन्त बुझ जायगी / इससे उसकी सजीवता स्पष्ट प्रमाणित होती है / क्योंकि निर्जीव पदार्थों को वायु की अपेक्षा नहीं रहती / कागज़ के टुकड़े को कुछ क्षण के लिए ही नहीं, बल्कि कई दिन एवं वर्षों तक भी वायु न मिले तो भी उसका अस्तित्व बना रहेगा / परन्तु अग्नि वायु के अभाव में एक क्षण भी जीवित नहीं रह सकती है / यदि वह निर्जीव होती तो अन्य निर्जीव पदार्थों की तरह वह भी वायु के अभाव में अपने अस्तित्व को स्थिर रख पाती / परन्तु ऐसा होता नहीं है / अतः अग्नि को सजीव मानना चाहिए / इससे स्पष्ट हो गया कि अग्निकाय सजीव है / इसलिए मुमुक्षु को अग्निकाय की सजीवता का निषेध नहीं करना चाहिए और अपनी आत्मा के अस्तित्व का भी अपलाप नहीं करना चाहिए / क्योंकि दोनों में समान रूप से आत्म सत्ता है / अतः जो व्यक्ति अग्निकाय का अपलाप करता है, वह अपनी आत्मा के अस्तित्व से भी इन्कार करता है / और जो अपनी आत्मा के अस्तित्व का निषेध करता है, वह अग्निकाय की सजीवता का भी निषेध करता है / इस तरह आत्म स्वरूप की अपेक्षा से हमारी आत्मा एवं अग्निकायिक जीवों की आत्मा की समानता को बताया है / / आचार्य शीलांक ने 'से बेमि' का अर्थ इस प्रकार किया है- " जिसने पृथ्वी और जलकाय की सजीवता को भली-भांति जानकर उसका प्रतिपादन किया है, वही मैं सुधर्मास्वामी अनवरत पूर्ण ज्ञान प्रकाश से प्रकाशमान भगवान महावीर से तेजस्काय के वास्तविक स्वरूप को सुनकर, हे जंबू ! तुम्हे कहता हूं" | प्रस्तुत सूत्र में तेजस्काय की सजीवता को प्रमाणित करके, अब सूत्रकार उसके आरम्भ से निवृत्त होने का उपदेश देते हुए, आगेका सूत्र कहेंगे... I सूत्र // 2 // // 33 / / जे दीहलोगसत्थस्स खेयण्णे से असत्थस्स खेयण्णे, जे असत्थस्स खेयण्णे से दीहलोग-सत्थस्स खेयण्णे || 33 / / .. II संस्कृत-छाया : यः दीर्घलोकशस्त्रस्य खेदज्ञः वह अशसस्य खेदज्ञः यः अशस्त्रस्य खेदज्ञः सः