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विविध शरीराङ्गों पर व्रणशोथ का प्रभाव
४. वातनाड़ी विक्षत ( neuropathic lesion ) जन्य सन्धिपाक | सन्धियों में उत्स्यन्दन ( effusion ) के दो मुख्य कारण हैं
( १ ) कुछ रक्त के रोग - सहज रक्तरोग ( अधिरक्त रोग ) अवाप्त रक्तरोग ( शीताद, अरक्तता, रक्तस्रावी ज्वर )
( २ ) समीपस्थ अंगों के रोग - अस्थि ( अस्थिपाक तथा घातक अर्बुद ) तथा पेशी एवं स्तर - fascia ( सपूयपेशी, प्रमेहाणुजनित स्तरपाक - fasciitis )
अब आगे हम इनका परिचयात्मक संक्षिप्त वर्णन करने के पूर्व सन्धिपाक एवं सन्धिश्लेष्मधराकलापाक का विभेद बतलाऐंगे सन्धिश्लेष्मधराकलापाक ( synovitis ) केवल सन्धिश्लेष्मधराकला में ही होता है । सन्धिपाक ( arthritis ) जब पाक कास्थि, अस्थि, आटोपिका आदि सभी में होता है ।
विविध सन्धि तथा सन्धिश्लेष्मधराकलापाक
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पूयजनक रोगाणुओं से होने वाले माला तथा पुंजगोलाणुओं से होने वाले सन्धिपाक में सन्धि उत्स्यन्दन के कारण सूज जाती है, तनिक भी हिलाने पर विच्छू के काटने सरीखा तीव्र शूल होता है यही कारण है कि बालक शल्यविद् द्वारा अंग के स्पर्श मात्र से चीखने लगते हैं। पेशियाँ अनाम्य ( rigid ) होजाती हैं तथा वह भाग भी शोथयुक्त होजाता है । वह अंग अर्द्धाकुंचित ( semiflexed ) रहता है आगे चलकर जब आटोपिका तथा सन्धायीकास्थि नष्ट हो जाती है तो पूय पेशियों तक में पहुंच जाता है | यदि सन्धि तलोपरिक ( superficial ) हुई तो उसके ऊपर की त्वचा लाल, चमकदार तथा उष्ण मिलती है । वैकारिकीय सन्धिच्युति ( pathological dislocation ) उपस्थित रहती है जो बहुधा मिलती है। रोगी बहुत बीमार दिखाई देता है अर्द्धमूच्छित, संन्यासावस्था में या प्रलापावस्था में मिलता है उसे सकम्प ज्वर आता है जीभ रोमान्वित ( furred ), मूत्रराशि की अल्पता, स्वचा का रूक्ष एवं शुष्क होना आदि विषरक्तता के सम्पूर्ण लक्षण मिल जाते हैं ।
गोलाणुजन्य इन सन्धिपाकों में श्लेष्मधराकला अतिशीघ्र नष्ट होने लगती है, उसके स्थान पर पूयनिस्सारिणी कणात्मक ऊति बनने लगती है जो शीघ्र ही सन्धायीकास्थि पर अपना नियन्त्रण जमाती चली जाती है । कास्थि का विनाश किनारों से अन्दर की ओर चलता है । कास्थि का मृदुभवन ( softening ), अपरदन ( erosion ) और पीडन स्थलों (pressure points ) पर कणों द्वारा स्थान ग्रहणन होने लगता है । इसके कारण व्रणस्थलों के किनारों पर कास्थि शल्कलों में छिलने लगती
| कास्थि से उपसर्ग समीपस्थ अस्थि में चला जाता है । अस्थिनिकुल्याओं (Haversian canals ) में रोग के जीवाणु तथा कणात्मक ऊति दोनों खूब भर जाते हैं । अस्थि का सम्पूर्ण धरातल कीड़ों का सा खाया हुआ हो जाता है ।
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सन्धिगुहा में पहले लस्यपूय तरल रहता है जो बाद में शुद्ध पूय बन जाता है तत्पश्चात् सन्धि के अन्तःपुर में स्थित स्नायु तथा सन्धि की आटोपिका में उपसर्ग पहुंच जाता