Book Title: Aadhyatmik Vikas Yatra Part 02
Author(s): Arunvijay
Publisher: Vasupujyaswami Jain SMP Sangh

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Page 513
________________ आश्रव के रूप में आत्मप्रदेशों में आगमन होगा, या होता है, यह ख्याल नहीं आता है। तो ठीक है,साधक को अपने मन-वचन-काया की स्थूल-सूक्ष्म दोनों प्रकार की प्रवृत्तियों, क्रियाओं तथा विचारों का तो ख्याल स्पष्ट रूप से आता ही है । आ ही सकता है । अतः यह निश्चित ही है कि जब जब जीव प्रमादाधीन रहेगा तब तब कर्माश्रव-कर्मबंध होता ही रहेगा। अतः प्रमाद की ऐसी स्थिति को समझकर जीव को अप्रमत्त बनना ही चाहिए। . आप स्पष्ट रूप से देख सकते हैं कि १) कर्मबंध की प्रवृत्ति भी मोहनीय कर्म की ही है । सभी कर्मबंध के हेतु भी मोहनीय कर्म के ही घर के हैं । सभी प्रकार की पाप की प्रवृत्तियाँ भी मोहनीय कर्म की ही हैं । आपको अच्छी तरह यह मालूम ही है कि अनन्त ज्ञानियों ने पाप की कुल १८ जातियाँ बताई हैं । जाती आधारित वर्गीकरण करके १८ में विभाजन किया है । लेकिन ये १८ ही पाप- १) हिंसा, २) झूठ, ३) चोरी, ४) अब्रह्म, ५) परिग्रह, ६) क्रोध, ७) मान, ८) माया, ९) लोभ, १०) राग, ११) द्वेष, १२) कलह, १३) अभ्याख्यान, १४) पैशून्य, १५) रति अरति, १६) परपरिवाद, १७) मायामृषावाद, १८) मिथ्यात्व शल्य । ये अट्ठारह पाप की मुख्य जातियाँ हैं । इस तरह इन पापों का वर्गीकरण किया गया है । वैसे पाप तो अनन्त है । लेकिन इन १८ जातियों में सबका समावेश हो जाता है। सबसे बड़ा आश्चर्य तो इस बात का है कि ये १८ ही पाप की जातियाँ आठ कर्मों में से सिर्फ एक ही मोहनीय कर्म की प्रवृत्ति-वृत्तिरूप है । एक मात्र मोहनीय कर्म के उदय के कारण ही इन अट्ठारह पापों की प्रवृत्तियाँ होती हैं । भूतकाल में उपार्जित मोहनीय कर्म के उदय से वर्तमान में ऐसी १८ पाप की प्रवृत्तियाँ होती हैं और दूसरी तरफ वर्तमान में की जाती ऐसी १८ पापों की प्रवृत्तियाँ, पुनः उसके उदय में वैसी प्रवृत्ति, पुनः वैसे कर्म का बंध और उसके उदय में फिर पाप, इस तरह अण्डे से मुर्गी, मुर्गी से पुनः अण्डा, फिर अण्डे से मुर्गी, फिर मुर्गी से अण्डा । इसी तरह पुनः पाप और फिर कर्म, फिर कर्म से पुनः पाप, फिर पाप से कर्म । इस तरह यह क्रम अनन्त काल तक चलता ही रहता है। जैसे बीज से वृक्ष और वृक्ष से पुनः बीज की उत्पत्ति, फिर वापिस उस बीज से वृक्ष और, फिर उस वृक्ष से बीज । इस तरह अनादि-अनन्त काल तक यह क्रम चलता ही जाता है। इसका कभी अन्त नहीं आता है, उसी तरह इस संसार का भी अन्त नहीं आता है । इसीलिये यह संसार अनादि-अनन्तकालीन चक्ररूप है जो चलता जाता है। अतः साफ कहा गया है कि पुनः पापं पुनः कर्म, पुनः कर्म पुनः पापम् । पापकर्मसंयोगेन, चलति संसारचक्रम्॥ . ... १२ आध्यात्मिक विकास यात्रा

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