Book Title: Aadhunik Jain Kavi
Author(s): Rama Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

View full book text
Previous | Next

Page 220
________________ भंकृत होगी वह स्वर-लहरी, आत्मशक्ति जागृत हो जिससे ; करे भेंट नव जीवन ज्योती, जय संगीत विश्व यह संसार - उस पार निर्जन और शून्य-सा थल हो, दूर बहुत ही कोलाहल हो, पर निर्भरके अविरल रवसे, रहित नहीं वह प्यारा वन हो, गायेगा; बदल जायेगा । ऐसा सुन्दर शुभ प्रदेश हो, हो अपना छलिया जग घर द्वार ; पार । मलय समीर जहाँ करती हो, हर्षित श्री विषाद हरती हो, इस मायावी जगकी दूषित पवन जहाँ नहि आ सकती हो, 1 ? ऐसी मन्द सुगन्धित प्यारी, मिलती रहे बयार ; छलिया जगके पार । १९४ ·

Loading...

Page Navigation
1 ... 218 219 220 221 222 223 224 225 226 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238 239 240 241