Book Title: Aadhunik Hindi Jain Sahitya
Author(s): Saroj K Vora
Publisher: Bharatiya Kala Prakashan

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Page 473
________________ आधुनिक हिन्दी-जैन-गद्य-साहित्य का शिल्प-विधान 449 ग्रन्थ की प्रतीती होती है। उपन्यास में लेखक चरित्रों के मनोवेगों, उनकी समस्याओं के द्वारा कथा के विभिन्न प्रसंगों तथा पहलुओं के द्वारा मानव-मन तथा जगत् के सत्यों और समस्याओं का सुन्दर समाहार और विश्लेषण परोक्ष रूप से व्यक्त करता है तब वह आकर्षक और ग्राह्य हो जाता है। साधारण रचना में भी उसके पात्रों या घटनाओं में नैतिक भावना या जीवन दर्शन की झलक मिल ही जाती है। जगत् व जीवन के प्रति अनुभूत सत्यों का ज्ञानबोध लेखक कहीं न कहीं अभिव्यक्त किये बिना नहीं रहता है, आवश्यकता है केवल उनको कलात्मक, रुचिपूर्ण ढंग से निहित करने के कौशल की। इसका तात्पर्य यह नहीं कि उपन्यास में कोई पूर्व निश्चित उद्देश्य या जीवन दर्शन रहना ही चाहिए। कभी तो वह जाने-अनजाने ही लेखक की जीवन-जगत् से सम्बंधित भावनाएं, क्रिया-प्रतिक्रियाएँ पात्रों व प्रसंगों के द्वारा स्वयं ही उद्घाटित हो जाती है, क्योंकि किसी सिद्धान्त, सत्य या दर्शन को प्रतिपादित करने के लिए या खण्डन-मण्डन करने के लिए लेखक उपन्यास की रचना नहीं करता। 'वह तो मानव-जीवन का निरीक्षण करके केवल उसके बहुत से छाया-चित्र उपस्थित करता है। इन छायाचित्रों में ही वह मूलभूत सत्य लिपटा होता है, जिसे ढूंढ निकालना आलोचक का काम होता है। अतएव, किसी भी बड़े उपन्यास में केवल लेखक के मानव-जीवन सम्बंधी निरीक्षण मात्र होते हैं, जिनमें सर्जन-शक्ति निहित होती है। इन्हीं निरीक्षणों का मनन तथा प्रतिपादन करके एक नित्य सत्य का सर्जन होता है। उपन्यासों में जीवन दर्शन का यही अर्थ है।' + + + उपन्यासों में जीवनी की व्याख्या का विचार हमें दो प्रकार से करना चाहिए, एक तो उनके आधार पर और दूसरे उनमें निहित सदाचार, धर्म अथवा आदर्श के आधार पर। इसी से यह विवाद उपस्थित होता है कि उपन्यास के उद्देश्य में नीति का निरूपण आवश्यक है या नहीं, लेकिन इसकी चर्चा हमें यहाँ अपेक्षित नहीं है। कथा साहित्य के शिल्प विधान के अंतर्गत हमने देखा कि इसके प्रमुख तत्त्वों के रूप में कथा वस्तु, चरित्र-चित्रण, संवाद, वातावरण, भाषा शैली व उद्देश्य रहते हैं। निबंध, जीवनी, समालोचना, आत्मकथा, पत्र-डायरी भी गद्य के महत्वपूर्ण विविध स्वरूप ही हैं, लेकिन इनके शिल्प विधान में भिन्न तत्त्वों का सहयोग रहता है; जिसकी चर्चा हम आगे करेंगे। यहाँ आलोच्यकालीन आधुनिक हिन्दी जैन साहित्य के उपलब्ध उपन्यास साहित्य के शिल्प विधान का परीक्षण करना उचित है। सर्वप्रथम गोपालदास बरैया कृत 'सुशीला' उपन्यास प्राप्त है। उसे हम 1. शिवनारायण श्रीवास्तव : हिन्दी उपन्यास, पृ. 455-456.

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