Book Title: 47 Shaktiya Aur 47 Nay
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Pandit Todarmal Smarak Trust

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Page 116
________________ गुणीनय और अगुणीनय १११ यहाँ भगवान आत्मा के गुणग्राहक स्वभाव एवं साक्षीभाव स्वभाव को शिक्षक से शिक्षा ग्रहण करते बालक और शिक्षक से शिक्षा ग्रहण करते बालक को वीतरागभाव से - अनासक्त भाव से - साक्षीभाव से देखनेवाले पुरुष के उदाहरणों से समझाया जा रहा है। जिसप्रकार शिक्षक के द्वारा सिखाये जाने पर बालक भाषा आदि सीख लेता है; उसीप्रकार यह भगवान आत्मा भी गुरु के उपदेश को ग्रहण कर ले - ऐसी शक्ति से सम्पन्न है। भगवान आत्मा की इसी शक्ति का नाम गुणीधर्म है और आत्मा के इसी गुणी नामक धर्म को विषय बनानेवाले नय का नाम गुणीनय है। जिसप्रकार शिक्षा ग्रहण करते बालक को देखनेवाला पुरुष शिक्षा ग्रहण नहीं करता, अपितु मात्र साक्षीभाव से देखता ही रहता है; उसीप्रकार यह भगवान आत्मा पर से कुछ भी ग्रहण नहीं करता, मात्र उसे साक्षीभाव से जानता-देखता ही है। भगवान आत्मा की साक्षी भाव से जानने-देखने की इस शक्ति का नाम ही अगुणीधर्म है और इस अगुणी नामक धर्म को विषय बनानेवाले नय का नाम ही अगुणीनय है। तात्पर्य यह है कि भगवान आत्मा में एक ऐसा धर्म है कि जिसके कारण वह उपदेश ग्रहण करने में समर्थ है और एक ऐसा भी धर्म है कि जिसके कारण वह पर का उपदेश ग्रहण न करके मात्र उसे साक्षीभाव से जान लेता है। इन दोनों धर्मों के नाम ही क्रमशः गुणीधर्म और अगुणीधर्म हैं। यदि भगवान आत्मा में गुणीधर्म न होता तो फिर देशनालब्धि संभव न होती, तीर्थंकर भगवान के उपदेश का लाभ भी भगवान . आत्मा को प्राप्त नहीं हो पाता; क्योंकि जब वह उसे ग्रहण ही नहीं कर पाता तोलाभ कैसे होता? इसीप्रकार यदि अगुणीधर्म नहीं होता तो फिर

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