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उस बात को छोड़ दी क्योंकि उसमें तो फैल हो जाने का खौफ काफी था, इसलिये ऐसा ही लिख डाला कि मुक्तिसागर मेरा शिष्य है, ऐसे तो अंट संट लिखने में एक मूर्ख आदमी भी नहीं मान सकता है तो फिर हमारे बीसवीं सदी के लोग कैसे इक़रार कर सकते हैं। अब भी मैं तुमको चैलेंज करता हूँ तुम जाहिर प्रूफ करके दिखादो वरना हम प्रूफ करके दिखाने के लिए तैयार हैं । दूसरी बात तुम लिखते हो कि उनका दोष अखबारों में लिखना उचित नहीं समझा । इसलिये आपने अपनी सम्मति जाहिर करली |
यह कौन से ज्ञान से, खरतरगच्छ की सलाह ली है या नहीं ? इसका भी आपको कैसे ज्ञान हुआ ? समुदाय बाहर करने में संच की सलाह की कोई जरूरत नहीं है, गच्छ बाहर करना हो तो सलाह की जरूरत है । इसको समझिये, जिस परभी हमने तो स्थानीय संघ की सलाह ले भी ली है । इत्यादि ।
अब मैं हरिसागर से पूछता हूँ, तुमको क्या त्रिदोष तो नहीं हुआहै । मैं सैंकड़ों दफा कह चुका कि तुम पहले इस बात का प्रूफ करदो कि मुक्तिसागर मेरा शिष्य है और उसके बारे में जहाँ मैंने बड़ी दीक्षा ली है वहाँ के संघ का काग़ज़ मँगवा कर पेश करो । उसमें लिखा है कि हरिसागर के शिष्य मुक्तिसागर अमुक गाँव में थे, उनसे वहाँ के सकल संघ के नाम की चिट्ठी क्या तुम नहीं मँगवा सकते हो ? क्या हर्ज है यदि सत्य ही है तो हरिसागर तुमको शायद पता नहीं होगा कि -
(१) हरिसागर की पहली कलम - २००) रु० मु० इसरी में मँगवा कर साध्वी जतनश्रीजी के मार्फत कपूरी बाई को दिये और अनाचार भी किया ।
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