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________________ (३२) तो आपके लिये वे अच्छे उपदेश भी निरर्थक हुये और यदि सावधान होकर सुना और तदनुसार आचरण भी किया तो अमृत के जैसा वह उपदेश सिद्ध होता है। इसी तरह जो कोई श्रद्धा और प्रेम से मर्ति की पूजा करता है और कहता है कि हे सश्चिदानन्द घन ! हे परमात्मन् ! हे बीतराग देव ! हे परब्रह्म! हे भगवन! आप हमको इस सुदुस्तर संसार सागर से पार कराश्री, श्राप मेरी सारी विषय वासना को दूर कराओ और जिस से हमारा परम कल्याण हो ऐसी सुबुद्धि को वो, इत्यादि जी भक्ति-भाषना के द्वारा प्रभु के पास विनीत होकर पूजा करता है, उसे निर्मल वुद्धि होती है, चिन्त शान्त होता है और अनुदिन विशेष सुख का लाभ होता है। मगर जो कोई केवल यह कह कर कि-चलो, हटो यह पत्थर की मर्ति तो है, इस से क्या लाभ ? फिर ऐसे पुरुषों को मूर्ति कुछ भी लाभ दायक नहीं। आर्य-महाराज, ईश्वर तो निराकार है, फिर मूर्ति में ईश्वर को मानने से ईश्वर भी साकार हो जायेंगे अर्थात् जड़ हो जायेंगे। अतः ईश्वर की सेवा में मूर्ति कोई कारण नहीं है। दादाजी-भाई, ईश्वर निराकार हैं और साकार भी हैं। और मर्ति में ईश्वर की सत्ता को मानने से ईश्वर में जड़ता दोष नहीं होता, जैसे आकाश सभी जगह व्यापक रूप से-घट में, पट में, मठ में और देह में व्याप्त है, मगर वे घट पटादि चीजें आकाश कभी नहीं होती और न आकाश ही घट पट के रूप में हो जाता है। चूंकि निराकार ईश्वर का बोध केवल Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034562
Book TitleMurti Puja Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGangadhar Mishra
PublisherFulchand Hajarimal Vijapurwale
Publication Year1947
Total Pages94
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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