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________________ (१२६) त हजारो माणसनुं हृदय खेंची शकवाने समर्थ ना, अने तेमां भक्तिभाव पैदा करी शकतुं नथी. सत्यविजये खरेखर प्रशंसनीय प्रयास कर्यो, अने जेनुं फळ वणे दरजे सारं आव्यु. कुसंप तथा क्लेश, अने अज्ञानता के, जे दुर्दशानां मूळ हतां ते दाबी देवाने ते उपायो बरोवर समर्थ नहि होवाथी, साधुओनी स्थितिमां घणो सुधारो थयो, पण ते चिरंकाळ सुधी रहेशे एम कहेवाय नहि. हालना वखतमां मध्यम वखतना साधुओ अने श्रावकोनी स्थिति करतां कांईक सुधारो थयो छे, तेथी आपणे संतोष मानवानी जरूर नथी; पण घणा सुधारानी जरूर छे. जो के हाल केटलाक साधुओ, सरल हृदयना, पवित्र शास्त्रमा कुशळ,अने मुचारित्र पाळे छ, अने केटलाक श्रावको धर्ममां चुस्त, गुरु प्रत्ये अने स्वामीभाई प्रत्ये भक्तिवाळा, सद्गुणी, समद्धिवाळा, सुखी अने संतोपी छे, तेथी आपणे घणा मगरुर छीए; पण केटलाक साधुओ साधुनो वेश धारी उदरपुर्णा कर छे, जैन धर्म शुं छे ते समजता नथी, ममत्व राखीने मारूं तारुं गणे छे, ने शुद्ध चारित्र पाळता नथी ने धर्मने निंदारुप बनावे छे. केटलाक श्रावको पोतानो धर्माचार समजता नी, अन धर्ममां भ्रष्ट होय छे ने कुसंप कराववामां आनंद माने छे, अने जेने परिणाम तेओ गरीब स्थितिमां भटकी पोतानी जींदगीनो अंत लावे छे. हवे आ साध अने श्रावकोनी दुर्दशानुं कारण जाणी लईने तेनी खामीओ दूर करवी जोईए, के जे आ कॉन्फरन्सनो मुख्य हेतु छे. हवे मुख्य खामीओ नीचे प्रमाणे छे: १. हालना वखतमां केटलाक साधुओ पोतानो परिवार वधारवानी इच्छाथी, पोतानी वृद्धावस्थामां चाकरी करे तेवा इरादाथी कीशोर वयना बाळकने. जैनधर्मना मूळतत्व- काईपण ज्ञान छे के नहि तेनो तपास कर्या विना, साधुनुं काढण चारित्र पाळी शकवाने ते शक्तिवान ठे के नहि तेनी कसोटी कर्या सिवाय, अने संघनी अने थनार चेलानां माबाफ्नी परवानगी सिवाय उतावळथी दिक्षा आपी दे छे; जेनुं परिणाम ए आवे छे के ते माणस खांडाना वृतवाळु चारित्र पाळवाने असमर्थ होवाथी, साधुनो वेश उतारी संसारमा पडे छे अने धर्मनी निंदा करावे छे, अने जो की साधनो वेश राखे छे तो मात्र वेशधारीज रहे छे. ते शास्त्रनुं ज्ञान संपादन करी शकतो नथी ने साधुपणाने उदरपूर्णानुं साधन बनावे छे. आ अज्ञान अने वृतहीन वेशधारी साधुने केटलाक श्रावको अज्ञानताने लीधे वश थाय छे, जेने परिणामे अंदर अंदर श्रावकोमां पण क्लेश उत्पन्न थाय छे. २. पुस्तकोने माटे साधुओमां क्लेश थाय छे, जेथी साधुआनो संघाडामां भाग पडी जाय छे, जो के तेओ पैसा राखता नी, पण पैसा करतां पुस्तको तरफ विशेष ममत्व राखे छे. अने पोते वांचवाने समर्थ न होय, तेवां पुस्तको श्रावक पासे खरीद करावी पोते राखे छे, अने जोके ते पुस्तको उधई खाई जाय तोपण बीजा साधुओने वांचवा आपता नथी, ए खरेखर दिलगीरीनी वात छे. पोताना गुरुना मरण पारळ तेनां पुस्तको माटे तेना शिष्यो वढे छे, ते हकीकत एम बतावे, छे के, तेओ आपणा धर्मर्नु रहस्य समजता नथी, अन तेओ साधुनी दिक्षाने केवी रीते लायक.. थाय, ते आपणे समजी शकता नथी. साधुओ पुस्तकने नामे हालना वखतमां पैसा एकठा करे छ अने एक शराफने त्यां रखावे छे. ए पण वास्तविक नथी; एथी पण घणां माठां परिणाम नपिजे छे. साधुओ जोके तेओ त्यागी कहेवाय छे, माटे तेओए जोईतां उपकरणो राखवा जोईए, तेने बदले हालमां तेओ पोताथी उपडी न शके सेटलां बधां उपकरणो राखे छे. आव: Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034560
Book TitleMumbaima Bharayeli Biji Jain Shwetambar Conferenceno Report
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Shwetambar Conference Office
PublisherJain Shwetambar Conference Office
Publication Year1904
Total Pages402
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size41 MB
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