SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 207
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (१८५) सूचक जवाब देता है. इस तरह पापको बूरा मानना यह बात कथंचित् सद्गुण रूप है. वो भी सद्गुण वैदिक रीतिसे प्राप्त नहीं हो सकता. क्यों कि विधिसे मांसभक्षण करनेवाले .: कभी उस कर्मका पश्चाताप नहीं कर सकते. अरे ! पश्चात्ताप तो दूर रहा किंतु उस नीचकर्म में भी धर्मका ढोंग रखनेसे अधमकर्मको उपार्जन करते हैं. धर्मढोंग भी कहां तक लिखें १. देखो उसका नमूना - "" . नियुक्तस्तु यथान्यायं, मांसं नात्ति हि मानवः । समेत्य पशुतां याति संभवान् एकविंशतिम् ॥ ३५ ॥” 9 म- अ -५ । भावार्थ - श्राद्ध और मधुपर्क में शास्त्रमर्यादानुकूल जुडा हुआ जो मनुष्य मांसको नहीं खाता वो मर मर कर एकवीस जन्म तक पशु होता है ॥ ३५ ॥ देखा ? मांस न खावे तो २१ वार पशु होवे. जुल्म, जब घोरपापका उदय हो तत्र ऐसी पापमय प्रवृत्तिमें श्रद्धा होती है; प्रत्यक्षतया प्रतीत होता है कि. दुराचारी मांसाहारी विद्वानों सिवाय ऐसी बातें सदाचारीसे कैसे लिखी जा सकती हैं. अपने दुराचारोंको छिपानेके लिये कितनेक दांभिकोंने धर्मके नामसे ये ढोंग चलाये हैं; तथापि इन बातोंवाले शास्त्रोंको सत्य मानना सिवाय मोहोदय के नहीं बन सकता. इस विषयकी पुष्टिमें जो श्लोक हैं सो भी युक्तिशून्य मालूम होते हैं. जैसे कि 46 यज्ञार्थं पशवः सृष्टाः स्वयमेव स्वयम्भुवा । " यज्ञस्य भूत्यै सर्वस्य तस्मात् यज्ञे वधोऽवधः ॥ ३९ ॥ २४ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034555
Book TitleMat Mimansa Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaykamalsuri, Labdhivijay
PublisherMahavir Jain Sabha
Publication Year1921
Total Pages234
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy