SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 206
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (१८४) कोंका अन्न विना हाथवाले मत्स्यादिक हैं. और शूरवीर ( पराक्रमी ) सिंहादिकोंके अन्न भीरु हाथी आदि है. अर्थात् एकका एक भक्ष्य है ॥ २९ ॥ खानेवाला मनुष्य खाने योग्य पाणियाँको खाता हुआ दूषित नहीं होता. क्यों कि खानेवाले सब प्राणी ब्रह्माने ही रचे हैं ॥ ३० ॥ ऐसे अनार्यों जैसा कथन करनेवाले कुशाखों पर चलने. वालोंको देख कर हमको दया आती है कि, इन विचारोंकी बुद्धि पर पड़ा हुआ पड़दा कब खुलेगा ? और भव भ्रमणाके मिटानेवाले वीतराग प्ररूपित सत्यशास्त्रके तत्त्वज्ञान रूप ज्योतिःके दर्शन कब करेंगे. " कृत्वा स्वयं वाप्युत्पाद्य, परोपकृतमेव वा । - देवान पितॄश्चार्चयित्वा, खादन् मांसं न दुष्यति ॥३२॥" . भावार्थ-मांसको मोल लेकर वा स्वयं पैदा करके अथवा किसीने आन कर दिया हो अथवा देवता और पितर . इनको पूजन करके मांसको खाता हुआ मनुष्य दोषका भागी नहीं होता है ॥ ३२ ॥ ____ आगे चल कर अविधिसे मांसका निषेध किया है और धर्मबुद्धिसे खाना लिखा है. सो भी महा अज्ञानताको सिद्ध करता है. कभी पापके उदयसे पापी मनुष्य मांस खाता हो तो भी कोई सज्जन कहता है कि यह तूं ठीक नहीं करता, तब वह कहता है यह बात ठीक है, मैं पापोदयसे महा अधर्मका काम करता हूं; मेरा बुरा हाल होगा मगर क्या करूं ? वह पाप मेरेसे नहीं छूटता. इस तरहसे पश्चात्ताप Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034555
Book TitleMat Mimansa Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaykamalsuri, Labdhivijay
PublisherMahavir Jain Sabha
Publication Year1921
Total Pages234
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy