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________________ प्रस्तावना। प्रिय पाठको ! मुझे पूर्ण विश्वास है कि, इस पुस्तकको पद और मध्यस्थ मनके जैनतर मनुष्य जरूर लाभ उठावेंगे. मगर पक्षपातसे पीड़ित पाठक खेदातुर बनेंगे यह बात भी विर्विवाद है. इससे इस पुस्तक बनानेमें लाभ हानि दोनों भासते हैं. फिर इस रचनासे क्या फायदा ? , यह प्रश्न जिज्ञासुके हृदयमें अवश्य. स्थान लेगा. परन्तु प्रथमसे ही इस विषयका मैं खुलासा कर देता हूं कि, जिससे निरर्थक प्रश्न पाठकोंके हुतयको रोक कर उन्हें नाहक उलझनमें ना डाले यद्यपि पक्षपातीको इससे खेद होगा परन्तु इसकी अपेक्षा मध्यस्थोंके लाभ पर ध्यान दिया जावे तो कई गुण ज्यादा है. जैसे सूर्यसे कितनेक रात्रिचर प्राणियोंको हरकत होती है, परन्तु उस ( सूर्य) से लाभ उठाने वालोंकी अपेक्षा के आगे हरकत तुच्छ है; सो ही हीसाब यहां समझ लेनेका है. क्यों कि, प्रस्तुत पुस्तकसे लाभ मुक्तिपर्यंत उठा सकते हैं. अतः हानिका हीसाब बहुत तुच्छ है. इस पुस्तक रचनेमें मुख्य हेतु यह है कि, ' ठक्कुर-नारायण विसनजी' आदि अनेक अन्य धर्मावलंबियोंके बनाये हुए पुस्तकों के देखनेसे मालूम हुआ कि, ये लोग सच्चे जैन धर्मपर नाहक कलंक चढ़ाते हैं और अपने मन्तव्यमें कितनी गड़बड़ है सो देखते ही नहीं. उनकी आंखें खोल देना यह भी हमारा फर्ज है. जैसे ठक्कुरने लिखा है कि, જૈન સાધુઓએ તાંત્રિક ક્રિયાઓને સ્વીકારી ને મલીને જપ જાપ તથા માંસ બલિદાન આદિથી દેવી પિશાચ તથા વૈતાલ આદિની જારણ મારણ અને વશીકરણ આદિ સિલિ માટે સાધના કરવા માંડી.” Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034555
Book TitleMat Mimansa Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaykamalsuri, Labdhivijay
PublisherMahavir Jain Sabha
Publication Year1921
Total Pages234
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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