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________________ (१५८) कि, ऐसे कल्पित पात्र बनाते समय जरा विचार करता कि मेरी असत्यता जाहिर होने पर मैं अप्रमाणिक ठहरुंगा. परंतु जहां द्वेष भर जाता है, वहां पर विचार नहीं रहता और साथ यह भी खयाल रक्खा होगा कि आखिर तो नोवेल ही है ?. इसमें कल्पना प्राधान्य तो प्रसिद्ध है और दूसरे धर्म पर द्वेष हो उसकी सफलता ऐसे नोवेलों द्वारा सुगमतासे हो सकती है. बस, झट कलम पकड ली और श्वेत पर श्यामता करने लगा होगा. पृष्ठ १९ वें पर-" भानण माने प्रणाम ४२वानु २यु छ." जतिक मुंहसे निकलवाये ये शब्द भी मन घईत ही है, क्यों कि इस तरह यतिकी खुशामत जैन राणी मीनल देवीको पसंद पडे यह असंभाव्य है और मुंजाल मंत्री जैसे जैन महाशय के पास जति ऐसे शब्द बोल ही नहीं सकता है. __ पृष्ठ २४.." तिने शसेवानी या छ.” २५-" આનંદસૂરિએ પ્રણામ કર્યા. ર૬-“જીને ભગવાનને ભગવો વાવ ઉડતી કરું.” ૨૭મીનલ દેવીગેરી સાધ્વીને બેલાવે છે.” પ૧–બ આનંદસૂરિ તિલક કરવા આવતા હોય તેમ मागण याव्या." इत्यादि लिखाण सर्वथा युक्ति शून्य होनेसे सामान्य विचारक भी उसकी असत्यता समझ सके ऐसा है. उसमें भी पृष्ठ २६ वें में-01 लापाननी मग पावट! sal ३." इस वाक्यके उल्लेखसे तो घनश्यामने स्पष्टतया अपनी उन्मत्तता प्रकाशित की है, क्यों कि " जिन भगवान्नो भगवो वावटो" ये शब्द उन्मत्तके मुख सिवाय विचारकके मुखसे निकल हो नहीं सकते. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034555
Book TitleMat Mimansa Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaykamalsuri, Labdhivijay
PublisherMahavir Jain Sabha
Publication Year1921
Total Pages234
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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