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________________ (१४२) विपाट्य देव्याश्च ततो, दक्षिणां कुशिमुद्गतः । निश्चक्रामाद्भुतो बालः, सर्वलोकविभासकः ॥ ३९ ॥ प्रभाकरप्रभाकारः, प्रकाशकनकप्रभः । गृहीतानमलोदग्र-शक्तिशुलः षडाननः ॥ ४०॥ दीतो मारयितुं दैत्यान् , कुत्सितान कनकच्छविः । एतस्मात् कारणाद्देवः, कुमारश्चापि सोऽभवत् ।। ४१ ॥" भावार्थ-सूतजी कहते हैं जब वीरभद्रने इस प्रकारसे स्तुति करी तब प्रसन्न हो कर पार्वतीजी अपने पति शिवजीके मंदिरमें प्रवेश करती भई ॥ २० ॥ फिर द्वार पर खडा हुआ वीरभद्र शिवजीक दर्शन करनेके लिये आये हुए देवताओंकों अपने अपने घरोंको भेजता हुआ और यह कहने लगा कि हे देवताओ! अब दर्शन करनेका अवसर नहीं है. कारण कि शिवजी पार्वतीके संग रमण कर रहें हैं. इन वचनोंको सुन कर देवता अपने अपने स्थानको चले गयें ॥ २१-२२ ॥ जब हजार वर्ष व्यतीत हो चुके तब देवता शीघ्रता करके शिवजीके समाचार लेनेके लिये अग्निदेवताको भेजते भये ॥२३ ॥ अग्नि तोतेका रूप धारके स्थानके किसी छिद्रके द्वार स्थानमें प्रवेश करके पार्वतीके संग रमण करते हुए महादेवजीको देखता हुआ, तब कुच्छ क्रोध करके महादेवजी उस तोतसे बोले कि, तेरा किया हुआ यह विघ्न है. इस लिये यह विघ्न तुझहीमें प्राप्त होगा, ऐसा कहा हुआ अग्नि अंजलि गंद कर महादेवजीके वोर्यको पीता भया ॥ २४ से २७ ॥ फिर उस वीर्यसे तृप्त हुआ अग्नि देवताओंको तृप्त करता भया, उस समय वह शिवजीका वीर्य उन देवताओंके उदरको Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034555
Book TitleMat Mimansa Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaykamalsuri, Labdhivijay
PublisherMahavir Jain Sabha
Publication Year1921
Total Pages234
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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