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________________ मारवाड़ का इतिहास रणमल्लजी के पास भेज कर इन्हें सहायता के लिये बुलवाया । यह खबर पाकर रणमल्लजी' तत्काल चुने हुए ५०० वीरों के साथ मेवाड़ जा पहुँचे । परन्तु उनके आनेकी सूचना मिलते ही चाचा और मेरा पाई कोटड़ा के पहाड़ों में जा छिपे। इस पर राव रणमल्लजी ने वहां भी उनका पीछा किया, और ६ महीने तक उक्त पहाड़ को घेरे रहने के बाद वहां के भीलों की सहायता से चाचा और मेरा को, मय उनके साथियों के, मार डाला । परन्तु महपा पँवार, जो इस षड्यन्त्र में सम्मिलित था, पहले से ही स्त्री का भेस बनाकर निकल भागा, और महाराणा मोकलजी के ज्येष्ठ भ्राता रावत चंडा की सहायता से मांडू के सुलतान के पास जा पहुँचा । इसके बाद राव रणमल्लजी चाचा और मेरा के पक्ष के स्वामिद्रोही सीसोदियों की कन्याओं को लेकर देलवाडे आए, और उन्हें अपने साथ के राठोड़ वीरों को व्याह दिया । इस प्रकार अपनी प्रतिज्ञा पूर्ण हो जाने पर वे चित्तौड़ लौट आए और बालक महाराणा कुम्भाजी के पास रह कर मेवाड़ का प्रबन्ध करने लगे। कुछ ही दिनों में इन्हें रावत चंडा के छोटे भाई राघवदेव पर भी शक हो गया । इसलिये इन्होंने राजपक्ष के लोगों से सलाह कर उसे दरबार में बुलवाया, और वहां महाराणा कुम्भाजी के सामने ही उसे मरवा डाला। लाखाजी की मृत्यु जल्दी-से-जल्दी वि० सं० १४७६ (ई. सन् १४१६) में मानकर उस समय ही मोकलजी की अवस्था १२ वर्ष की मानली जाय और उनकी १७-१८ वर्ष की आयु में (अर्थात् वि० सं० १४८१-८२ ई० सन् १४२४-२५ में) कुंभाजी का जन्म होना स्वीकार करलिया जाय, तो भी महाराणा मोकलजी की मृत्यु के समय (वि० सं० १४६० ई० सन् १४३३ में कुंभाजी की अवस्था ८-६ वर्ष से अधिक नहीं हो सकती । १. ख्यातों में लिखा है कि राव रणमल्लजी ने मोकलजी के मारे जाने का समाचार सुन अपने सिर से पगड़ी उतार कर, साफा बाँध लिया था, और यह प्रतिज्ञा की थी कि जब तक हत्याकारियों को दंड न दे लूँगा, तब तक सिर पर पगड़ी न बाँधूंगा । २. मारवाड़ की ख्यातों के अनुसार इसी अवसर पर रणमल्लजी के भाई अड़कमल ने, तलवार के एक ही वार से, एक शेरनी को मारा था । ३. कर्नल टॉड ने लिखा है कि-"यद्यपि मोकलकी हत्या का कारण केवल व्यंग्य वचन ही कहा जाता है, तथापि उसके उत्तराधिकारी बालक कुंभा के किए अपनी रक्षा के प्रबन्ध को देख, मानना पड़ता है कि यह अवश्य ही एक गहरे षड्यंत्रका प्रारम्भ था। स्वामिद्रोही लोग माद्री के निकटके सुरक्षित स्थान में चले गए, और कुंभाने इस आवश्यकता के समय मारवाड़-नरेश की मित्रता और सदाशयता पर विश्वास किया । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034553
Book TitleMarwad Ka Itihas Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishweshwarnath Reu
PublisherArcheaological Department Jodhpur
Publication Year1938
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size369 MB
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