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________________ मंत्रीश्वर वमलशाह बेटी के लिए योग्य वरकी तलाश में थे। विमल के पराक्रम की प्रशंसा नगरसेठ के कानों तक भी पहुँची । उन्होंने अपनी पुत्री श्री का लग्न विमल के साथ ही करने का निश्चय कर लिया। नगर सेठ विमलके ननिहाल में आए, कुंकुमका तिलक किया और श्री का लग्न निश्चित् किया । विमल के मामाने सोचा कि पुत्री नगरसेठ की है, अतः हमें भी अपनी प्रतिष्ठानुसार खूब धूमधाम और ठाटबाट से ब्याह रचना चाहिये, पर उनके पास पर्याप्त धनराशि का अभाव था, उन्होंने इस प्रसंग को कुछ समय के लिये आगे धकेल दिया। विधि का विधान अकथनीय है। परिवर्तन होते देर नहीं लगती। भाग्य जब प्रबल होता है, तब लक्ष्मी स्वयं चरण चूमती है । घटना इस प्रकारकी है कि विमल एकबार तीर कमान लेकर जंगलमें ढोर चराने के लिये निकले हुए हैं । ढोर इच्छानुसार चर रहे हैं । विमल एक वृक्षके नीचे बैठकर इधरउधर बिना किसी लक्ष्यके तीर फेंक रहे हैं। अकस्मात् तीर इंटों के ढेर पर जा गिरता है। उसमें कुछ खोखलापन मालूम हुआ। लकड़ी की सहायता से विमलने देखा कि उस खोखली जगहमें स्वर्ण मोहरोंसे भरा हुआ एक घड़ा पाया । विमल ने वहां से उसे ले जाकर अपनी माता बीरमती को अर्पण किया । इस प्रकार सहसा इतनी बड़ी धनराशिको प्राप्तकर सभी हर्षातिरेक से झूम उठे। अब तो विमलशाह के लग्न की तैयारी पूरे जोरशोर से होने लगी। मंडप रचे गए, बन्दनवारों से द्वार सजाये गये तथा Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034552
Book TitleMantrishwar Vimalshah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKirtivijay Gani
PublisherLabdhi Lakshman Kirti Jain Yuvak Mandal
Publication Year1967
Total Pages32
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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